रिश्तों का असंतुलन
रिश्तों का असंतुलन
सच तो यही है कि अगर सही लाइफ पार्टनर मिला, तो जीवन आनंदमय हो जाता है, और अगर नहीं मिला, तो जीवन जीना दूभर हो जाता है, जीवन नारकीय बन जाता है जो पति-पत्नी दोनों पर लागू होता है ।”
फरवरी महीने की शुरुआत थी। शरद ऋतु की हाड़ कंपा देने वाली शीतलहर से लोग निजात पा चुके थे। सुबह-शाम थोड़ी ठंड का अनुभव अवश्य हो रहा था, लेकिन लोग अब फुल स्वेटर और कोट छोड़कर हाफ स्वेटर और हाफ जैकेट पहनने लगे थे। ऋषभ भी उस शाम हाफ जैकेट पहनकर घर से निकला और कुछ दूरी पर स्थित एक पार्क में जाकर बैठ गया। उसका मन उस दिन काफी खिन्न और उचाट था। फिर भी पार्क के वातावरण और बच्चों की चहलकदमी उसकी खिन्नता को कुछ कम कर रहे थे। आमतौर पर, जब मन खिन्न होता है, तो बाहर का माहौल भी अच्छा नहीं लगता, लेकिन ऋषभ के साथ उस दिन ऐसा नहीं हुआ। पार्क की चहलकदमी ऋषभ की चिंता को कम कर रही थी। आम में लगे मंजर की भीनी-भीनी खुशबू उसके गमों को मिटाने में मदद कर रही थी। पार्क में प्रतिदिन आने वाले लोगों की आवाजाही भी ऋषभ के ध्यान को उसकी व्यथा से बाहर निकालने का प्रयास कर रही थी।
ऋषभ पार्क में जाकर घास पर बैठ गया, हालांकि वहां बैठने के लिए बेंच भी थे। पार्क में जगह-जगह लकड़ी के बने बेंच और सीमेंटेड स्लैबनुमा बेंच लगे थे, लेकिन ऋषभ ने घास पर बैठना पसंद किया। उसके पास ही कुछ बड़े बच्चे बैडमिंटन खेल रहे थे। जहाँ ऋषभ बैठा था, वहाँ एक गुलर का पेड़ था, जो फलों से लदा हुआ था। छोटे-छोटे हरे फल उसी तरह डाल से चिपके हुए थे, जैसे नर्तकी के पैरों में घुंघरू चिपके रहते हैं। पास में ही एक अमलतास का पेड़ भी था, जिसमें हरे-हरे छड़ीदार फल लटके हुए थे, मानो किसी फंक्शन में लगे पंडाल से झुम्मर लटक रहे हों। गुलमोहर की छोटी-छोटी पत्तियां भी वहाँ की सुंदरता में अपना योगदान दे रही थीं। अभी अप्रैल-मई की तरह गुलमोहर में लाल-लाल फूल नहीं आए थे। अमलताश में भी अभी पीले फूल नहीं निकले थे| बीच-बीच में हवा का झोंका नीम की पीली हो रही पत्तियों को धरासायी कर रहा था। एक तरफ पीली पत्तियाँ गिर रही थीं और दूसरी तरफ नई-नई पत्तियां भी फुनगी पर अंकुरित होती नजर आ रही थीं। ऋषभ प्रकृति में नए-पुराने की इन प्रक्रियाओं को अपने जीवन से जोड़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लग रही थी।
इतने लोभक, मोहक और आकर्षक माहौल के बीच अचानक ऋषभ को अपनी पत्नी की आक्रामकता की याद सताने लगी। उसकी वह आक्रामकता और चिल्लाहट ऋषभ के मस्तिष्क में उसी तरह कौंधने लगी, जैसे बरसात के दिनों में आकाश में बिजली रह-रहकर कौंधती है। अचानक तीन बरस पुराने घाव से पीब-स्राव होने लगा था। व्यथा-विदीर्ण हृदय पर सांत्वना रूपी मलहम लगाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन पीब का रिसना बंद नहीं हो पा रहा था।
काफी देर तक पार्क की चहलकदमी में अपना गम भुलाने की कोशिश की, लेकिन वह गम भुला नहीं सका। थक-हारकर वह घर लौटने लगा। उस समय तक थोड़ा-थोड़ा अंधेरा होने लगा था, और लोग भी घर की ओर लौटने लगे थे। ऋषभ को घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। उसके मन में सवाल उठ रहे थे, “मैं जाऊं तो कहाँ जाऊं? किसके पास जाऊं? अब मेरा कौन है? नौकरी क्यों करूँ? किसके लिए करूँ?” इन सवालों के बीच अचानक उसके अंतर्मन की आवाज आई – “ऋषभ, तुम ऐसा क्यों सोचते हो ? दो वर्ष पहले तक कौन तुम्हारे साथ था? एक वर्ष जिसके साथ रहे, उसके लिए इतना मोह ? तुम्हारी मति मारी गई है। एक सपना के टूट जाने से जीवन खत्म नहीं हो जाता। तुम्हें साहस के साथ आगे बढ़ना चाहिए। जो तीस वर्ष तक पाला-पोसा, वह तुम्हारा कोई नहीं? जिसने एड़ी-चोटी का पसीना बहाकर तुम्हें पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया, वह तुम्हारा कोई नहीं? उठो, और अभी से एक नया संसार बनाने का ताना-बाना बुनो। एक बहन भी तो है, क्या वह तुम्हारी कोई नहीं, जो ससुराल में दीनता-हीनता का जीवन व्यतीत करने को विवश है| नौकरी पर जाओ, मन कहीं और लगाओ। समय पर सब ठीक हो जाएगा। परेशान होने से समस्या का निदान नहीं होता।” इन विचारों ने उसके दिल को कुछ ढाढस दी, और वह द्वंद्व की अवस्था से निकल पार्क से घर की ओर चल दिया।
पार्क से कुछ दूरी पर पहुँचते ही उसे एक पुराना मित्र मिल गया।
“अरे, अनुभव! तुम यहाँ इस समय ?” अचरज भरी निगाह से देखते हुए ऋषभ बोला।
“तुम्हीं से मिलने तुम्हारे घर आया था। आंटी ने बताया कि तुम पार्क की ओर गए हो, इसलिए इधर तुम्हें खोजने आ गया।”
“रात में ?”
“क्यों, रात में तुम्हारे यहाँ कोई दिक्कत है क्या? अभी रात नहीं हुई है, शाम ही हुई है, समझे जनाब?” मुस्कराते हुए अनुभव बोला।
“चलो, शाम हुई है, सॉरी। तो अब बताओ तुम्हारा क्या हाल-चाल है? इधर कैसे-कैसे आना हुआ? चलो पहले घर चलते हैं। खूब बातचीत करते हैं। फिर रात में यहीं ठहर जाना, सुबह मैं कार से तुम्हें छोड़ दूँगा।”
“नहीं ऋषभ, इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं बाइक से आया हूँ, बातचीत करके लौट जाऊँगा।”
“कहाँ है बाइक?”
“तुम्हारे घर पर।”
“वहाँ कैसे?”
“कहा न, पहले वहीं आया था। आंटी ने कहा था कि ऋषभ घर पर नहीं है। हो सकता है, कहीं पार्क में मिल जाए। यही सोचकर पार्क की ओर चला आया। संयोग से तुम यहीं मिल गया।”
“अच्छा, कुछ नया ताजा हालचाल बताओ।” ऋषभ चलते-चलते पूछा।
“मेरा तो सब ठीक है। लेकिन छत्रपति से कल जंदाहा बाजार में मुलाकात हुई थी। उसने बताया था कि ऋषभ का लाइफ कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। इसलिए मैंने सोचा कि नौकरी पर जाने के पहले एक बार तुमसे मिल लूँ। परसों का फ्लाइट है, कल मुश्किल से छुट्टी मिलेगी, इसलिए आज ही चला आया।”
“बहुत अच्छा किया। बहुत दिनों बाद तुमसे मिलने का अवसर मिला है।”
बातचीत करते-करते ऋषभ और अनुभव घर पहुँच गए। दोनों ड्राइंग रूम के सोफे पर बैठ गए। उस समय तक ऋषभ के पिताजी ऑफिस का चक्कर लगाकर घर नहीं लौटे थे। रोज़ की तरह अपना पेंशन फिक्स करवाने जाते थे, और ऑफिस के बाबू कोई न कोई बहाना बनाकर रामदयाल बाबू को घर लौटा देते थे। बाबू खुलकर पैसे की माँग भी नहीं करते थे और न ही उनका काम को ही आगे बढाते थे। राम दयाल बाबू को सुविधा शुल्क का मतलब न जानने के कारण उन्हें बहुत परेशानी झेलनी पड़ रही थी। हेड मास्टरी की ग्यारह साल की नौकरी से जितना वे नहीं थके थे, उससे ज्यादा पेंशन फिक्स करवाने के काम में विगत दो वर्षों से थक-हार गए थे। जो किरानी अपने बेटा-बेटी के विद्यालय में नामांकन के लिए हेड मास्टर साहब के आगे सलामी ठोकते थे, वही किरानी बाबू मास्टर साहब के ऑफिस आने पर आँख तक ऊपर नहीं उठाते थे। मुँह में पान चबाते हुए, फाइल में नजर गड़ाए, वह जबाब देते थे, जिससे उन्हें काफी अपमान महसूस होता था। जब ऑफिस से निराश होकर लौटते, वे ऋषभ की माँ को सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कम-से-कम आधा घंटा प्रवचन जरूर देते थे। पत्नी बेचारी सुनती रहती थीं। कभी-कभी पत्नी तंग आकर बोल देती थी, “आपसे कौन कहे? बिना चढ़ावा के बजरंग बली भी मन की मुराद पूरी नहीं करते, तो वे लोग तो ऑफिस के बाबू ही ठहरे।” लेकिन पत्नी की यह बात उन्हें अनर्गल लगती थी। उस दिन विलम्ब होने पर उनकी पत्नी, इन्द्रानी देवी, समझ रही थीं कि आज आएंगे तो उनका लेक्चर एकाध घंटा जरूर चलेगा।
जब ऋषभ और अभिनव आये, तब ऋषभ की माँ किचन में काम कर रही थी। लेकिन किसी के आने की आहट पाकर वह किचन से काम छोड़कर ड्राइंग रूम में आ गई। उम्र तो काम करने लायक नहीं थी, लेकिन घर में बहू नहीं थी, बेटी की शादी हो चुकी थी, वह अपने ससुराल में रहती थी। इसीलिए किचन का काम देखना ही पड़ता था। मजबूरी में क्या नहीं करना पड़ता?
किचन से आकर माँ सोफे पर बैठते हुए बोलीं, “अभिनव बेटा, बहुत दिनों बाद तुम्हें देख रही हूँ ?”
अभिनव ने दोनों हाथों से पैर छूकर प्रणाम करते हुए बोला, “हाँ आंटी, इस बार नौकरी से आया तो सोचा कि आप सभी का दर्शन करता चलूँ।”
“बहुत अच्छा किया बेटा। पके आम का क्या भरोसा? जब पेड़ साथ छोड़ दे, तब धराशायी। उनका जब हुक्म आ जाए, तब कूच कर जाना है।”
“ऐसा मत कहिए आंटी, अभी बहुत दिनों तक हमें आपका आशीर्वाद मिलता रहेगा । आप कैसी हैं?”
“मैं जैसा हूँ ठीक हूँ, बेटा। जब तक देह-हाथ चल रहा है, चल रहा है। आगे प्रभु की कृपा। अभी तुम क्या कर रहे हो, बेटा ?”
“अभी मैं महुली ब्लॉक में प्रखंड विकास पदाधिकारी के रूप में कार्यरत हूँ, आंटी।
“हाँ, हाँ, मुझे याद आया। एक दिन ऋषभ ने मुझसे कहा था कि तुम्हारी नौकरी बी० डी० ओ० में लगी है, लेकिन कहाँ ड्यूटी है, यह नहीं बताया था।”
“डेपुटेशन के बाद ऋषभ से भेंट नहीं हो पाई थी। आज पहली बार मिल रहा हूँ।”
“ मुझे तुमसे बात करके बहुत अच्छा लग रहा है, बेटा ,” आंटी बोलीं।
जब ऋषभ की माँ चाय-नाश्ते का प्रबंध करने के लिए उठीं, तो अभिनव ने ऋषभ से पूछा, “ऋषभ, कल छत्रपति कह रहा था कि तुम्हारा पारिवारिक जीवन ठीक नहीं चल रहा है, क्या बात है?”
“हाँ यार, वह सही कह रहा था। तुमसे क्या छिपाना, मेरा तो जीवन एक तमाशा बनकर रह गया है। कभी-कभी तो मन करता है कि नौकरी-चाकरी सब छोड़ दूँ।”
“ऐसा क्यों सोचते हो?”
“क्यों न सोचूं? अब किसके लिए नौकरी-चाकरी करूँ?”
“आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो, यार ?”
” क्या बहकी-बहकी ?”
“यह क्या बोल रहा है किसके लिए| भाभी के बाद भी तुम्हारा परिवार है। तुम्हारे पिताजी हैं, माताजी हैं, एक बड़ी बहन है। उनके लिए नौकरी करो। पति का फर्ज अगर अभी बाधित है तो पुत्र का फर्ज निभाओ, भाई का फर्ज निभाओ। और हम दोस्तों के लिए भी फर्ज निभाओ।”
“बस, बस, बस। अब रहने दो। बहुत उपदेश पिला दिया।”
“देखो, भाई, इसे अदरवाइज मत लो। हाँ, यह जरूर है, मैं कुछ ज्यादा बोल गया। इस वक्त इतना बोलने की जरूरत नहीं थी। अच्छा, यह बताओ, आखिर हुआ क्या था?”
“होना क्या था। मानवी दिल की बुरी नहीं थी, लेकिन उसकी माँ ने उसे बिगाड़ दिया। उस दिन मामूली बात को इतना तूल दिया कि थाना-कचहरी की नौबत आ गई। गन पॉइंट पर रिश्ता थोड़े ही चलता है। आज इस स्थिति में लाने के लिए उसकी माँ और मामी जिम्मेदार हैं।”
“छत्रपति जैसा बता रहा था कि भाभी तो बदमाश थीं, लेकिन ऋषभ ने भी पत्नी को कुशलतापूर्वक हैंडल नहीं किया। अपनी गलती का एहसास मनुष्य को तब होता है, जब वह अपना आकलन खुद करता है| दूसरे पर दोष मढ़ना आसान है लेकिन खुद को समझना बहुत मुश्किल कार्य है| अभी भी तुम खुद को पाक-साफ़ और पत्नी को गलत समझ रहे हो।”
“हाँ यार,वह बिल्कुल सही कह रहा था, मुझमे कुछ कमी जरूर है ।”
“आखिर ऐसा क्या हो गया?”
“तुम्हें छत्रपति ने और कुछ नहीं बताया?”
“बस वही थोड़ा-सा बताया। इसके बाद बार-बार पूछने पर यही कहा कि तुम खुद ही जाकर उससे पूछ लो। इसीलिए तुम्हारे पास आ गया।”
“अच्छा किया। तुमसे बात करके हल्का महसूस कर रहा हूँ। सच तो यह है कि उसकी जिक्र से ही दिल जलने लगता है और उस बात को दोहराने में जुबान काँपने लगती है।”
” इतना भावुक न हो| तुम इतना दुखी होओगे, यह मैंने कभी नहीं सोचा था। बताओ जरा, कहीं मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ। यह तो मैं जानता हूँ कि शादी-विवाह का मामला बहुत संवेदनशील होता है। सच तो यही है कि अगर सही लाइफ पार्टनर मिला, तो जीवन आनंदमय हो जाता है, और अगर नहीं मिली, तो जीवन जीना दूभर हो जाता है, जीवन नारकीय बन जाता है जो पति पत्नी दोनों पर लागू होता है ।”
” सही कह रहे हो। मुझे क्या पता था कि वह मेरे जीवन को नरक बनाने के लिए आई थी। शादी से पहले वह सती-सावित्री बनती थी, और माँग में सिंदूर पड़ते ही पूरी तरह बदल गई। एक नंबर की पियक्कड़, एक नंबर की अकड़ वाली, अव्वल किस्म की सुर्री। उससे शादी करने के लिए मैं किस-किस से नहीं लड़ा, झगड़ा। हर ऐब को छिपाता रहा, हर कमी को अपने पैसे से ढँकता रहा। खैर, छोड़ो, यह सब किस्मत का फेर है।”
“अभी कहाँ हैं भाभी ?”
“और कहाँ रहेंगी, जहाँ उन्हें राज मिलता है,जहां उन्हें सुख मिलता है, वहीं।”
“अर्थात?”
“नैहर में।”
“उनके माता-पिता उन्हें कुछ नहीं कहते?”
“अगर कहते, तो मुझ पर केस करके मुझे दर-दर की ठोकर खाने के लिए मजबूर करती? इस स्थिति में लाने में उसकी माँ पूरी तरह से जिम्मेदार है। वह हर रोज सब्जी में फोरन से लेकर दाल में घी के छौंक तक की खबर घंटों मोबाइल पर माँ को पहुँचाती थी, उसी का यह सब प्रतिफल है |
” मैं तो समझता हूँ कि आज एंड्राइड मोबाइल ख़त्म हो जाए, पति-पत्नी के बीच का आधा फसाद अपने आप समाप्त हो जाएगा।” अनुभव ने अपनी राय रखी |
उस दिन आकाश एकदम साफ़ था। शहर की चकाचौंध रौशनी के बाबजूद छत से आकाश में चाँद दिखलाई देने लगा था। छत पर हवा भी अच्छी लग रही थी। छत पर बने एक बरामदा में दोनों वार्तालाप में तल्लीन थे| अचानक अनुभव अपने घर जाने की इच्छा जताई -” ठीक है ऋषभ, अब मैं चलता हूँ, रात्रि ज्यादा हो जाने पर गाँव का रास्ता सुनसान हो जाता है ।”
“ अब रात में कहाँ जाओगे, यार? सांझ में आया मेहमान और सांझ में आयी वर्षा ठहर जाते हैं | यहाँ किसी चीज की कमी थोड़े ही है। यहीं ठहर जाओ, रात में हमलोग और बात करेंगे।”
आज नहीं,फिर कभी | अभी चलने के लिए उठा ही था कि माँ दो प्लेट भूंजा हुआ चुरा और बादाम चम्मच के साथ लेकर आ गयी और बोली- “लो बेटा,दोनों नास्ता करो, मैं अभी चाय लेकर आती हूँ। दोनों एक साथ नास्ता-चाय किये, इधर–उधर की बातें हुई और अनुभव चाची और ऋषभ से विदा लेकर अपने घर की ओर मोटर साईकिल से चल दिया।
अभी तक रामदयाल बाबू ऑफिस से नहीं लौटे थे। माँ और ऋषभ दोनों के चेहरे पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट दिख रहे थे ।
“पापा अभी तक नहीं आये हैं,मम्मी ?”अनुभव के चले जाने के बाद ऋषभ पूछा ।
“ देख ही रहे हो । आजकल वह कितना परेशान रहते हैं। एक तो पेंशन फिक्सेशन वाला काम और दूसरा तुम्हारे साथ घटी घटना दोनों से काफी परेशान हो गए हैं, आजकल चिड़चिड़ाहट भी उनकी बढ़ गयी है।”
“हाँ माँ, कौन जानता था कि शादी के बाद ऐसा उलझन में हमलोग फंस जायेंगे। एक महान दार्शनिक ने शादी-विवाह के बारे में ठीक ही कहा था कि मछली पकड़ने की उम्मीद में साँपों भरे थैले में हाथ डालने का ही दूसरा नाम शादी है।”
“ऐसा सब के साथ नहीं होता है बेटा, हम सब का नसीब फूटा हुआ था इसलिए वैसा घर-परिवार में सम्बन्ध हुआ। देखो आगे ईश्वर कौन-कौन दिन ——- ”
माँ अपनी बात पूरी करती तभी कॉल बेल बजी। ऋषभ दरवाजा खोला, राम दयाल बाबू थे। ऋषभ पापा को देखकर बोला– “आज बहुत लेट हो गया,पापा?”
“क्या बताएं, बेटा, लगता है कि हमलोगों के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी आयी हुई है।”अभी दोनों बातचीत कर ही रहे थे कि किसी के आने की आहट लगी| तुरत ऋषभ दरवाजे पर गया| उसके पापा थे|
“क्या हुआ, पापा | आज आप बहुत परेशान दिख रहे हैं।”पापा के हाथ का बेग लेते हुए ऋषभ बोला।
सोफा पर बैठते हुए राम दयाल बाबू बोले- “क्या कहें बेटा, आ तो जाता सबेरे लेकिन जैसे ही ऑफिस से निकला महिला थाना से आई० ओ० का फोन आ गया। वे फोन पर बोले – “अभी आ सकते हैं तो आ जाइए आपसे केस के बारे में कुछ जरूरी जानकारी लेनी है, नहीं जाता कैसे ? तुरंत थाना की ओर मुड़ गया। वहाँ मैंने अपनी बेगुनाही का सब बात कही लेकिन उनका एक ही कहना था– आपकी बहू का आरोप ही कार्रवाई करने के लिए काफी है। सभी कानून, सभी समाज, सभी महिला संगठन, सभी प्रशासन महिला के प्रति सॉफ्ट कोर्नर रखता है, सहानुभूति रखते हैं । जब मैंने कहा कि हमलोगों के पास अपनी बेगुनाही का सारा सबूत है तब वे बहुत बेरुखी से बोले – “सारे प्रमाण आपका कोर्ट में दिखलाईयेगा| ऊपर का आदेश है, मुझे सख्ती बरतनी ही पड़ेगा ।” मैं काफी डर गया| रात में कहीं पुलिसिया कार्रवाई कर देता तो मैं बुरा फंस जाता| जब अपने जेब से कुछ रुपये निकालकर उनको नजराना पेश किया तब जाकर कहीं सही से आई० ओ० बात करने लगे। क्या करें- होता ही है,घर फूटे जबार लुटे। ऑफिस जाओ, वही हाल| वकील के पास जाओ, वही हाल| कोर्ट में जाओ, वही हाल| आखिर कहाँ जाए हम निर्दोष आदमी न्याय की गुहार करने।” वे बोल रहे थे ऋषभ अपने पिता के दर्द से व्यथित हो रहा था| इसी बीच ऋषभ की माँ भी आ गयीं और बोलीं – “हाथ-पाँव धोईये, हलका- फुलका कुछ खा-पी लीजिये| दिन भर भूखे-प्यासे ऑफिस-ऑफिस चक्कर लगाकर आये हैं | राम दयाल बाबू उठे और हाथ-मुँह धोने चले गए।
लगभग दो साल पहले ऋषभ की शादी मानवी से हुई थी । कहने के लिए तो एरेंज मैरेज था लेकिन सब लव मैरेज की तरह ही हुआ था। न तिलक न दहेज़, न मांग न चांग, नो डिमांड नो कम्प्लेंनट, लड़की वाले जितना जो कर सकें, करें। लड़का वाले जितना चाहें, जो चाहे,करें। लेकिनदहेज़ दरिया में स्नान करनेवाले लोग इसे सहज में न लिए। कोई इस तरह की शादी पर इसपर कोई विश्वास किया, कोई न किया। विश्वास न करनेवालों की संख्या विश्वास करनेवालों की संख्या से बहुत अधिक थी| शादी-विवाह संपन्न,लड़की सर्व गुण संपन्न | स्वतन्त्र विचारवाली, जुझारू स्वभाववाली, अनावश्यक दबाव बनाने वाली, शक्की मस्तिष्क वाली, रोगी शरीर वाली, आरामफरोश और भी बहुत गुणों से परिपूर्ण। हालाकि ऐसा नहीं था कि ऋषभ मानवी के इन गुणों से बिलकुल अनभिज्ञ था लेकिन हाँ पूरा-का-पूरा भिज्ञ भी न था।
दोनों का मिलन बंगलौर में किसी दोस्त के बच्चे के बर्थ डे सेलिब्रेशन के दौरान हुआ था। ऋषभ हाई-फाई लड़की को पसंद करता था और मानवी सादा जीवन उच्च विचार वाले नवयुवक को। दोनों का चोआईस दोनों में मिल गया। फिर क्या था प्यार परवान चढने लगा।
एक ही शहर के रहनेवाले थे दोनों, उत्तरप्रदेश के बलिया जिला के | गाँव का नाम कारो था लेकिन मानवी के पिता अपना मकान बलिया शहर में भी बना रखे थे। बलिया में मानवी के मकान से महज बीस-बाईस किलोमीटर की दूरी पर ऋषभ के दादा ने ही आलीशान पञ्च महला मकान बनाए हुए थे। केवल नौकरी कलकत्ता के दो भिन्न-भिन्न जगहों पर अलग-अलग दो प्राईवेट कंपनियों में करते थे। दोनों अपने गार्जियन को अपनी-अपनी पसंद बतला दिए। उच्च आयवाले लड़का-लड़की की शादी-विवाह में माता-पिता की राय कोई अहमियत नहीं रखता। शादी के पहले लड़की का हर अवगुण लड़का को स्मार्टनेस और हर क्रियाकलाप आकर्षक लगता है जबकि लड़का की लपुआकट दाढी- मूंछ में भी प्रेमिका अदभुत सौन्दर्य देखने लगती है। प्रेमी का फटे जींस में भी राजे महाराजे की रुतबा दिखलायी देने लगती है| दोनों के अवगुण दोनों को गुण दिखाई देने लगे। दोनों के माता-पिता जब किसी कमी की ओर ईशारा करते, कुतर्क-कैंची से उस कमीरूपी कपडे को क़तर देते थे। माँ-बाप दोनों चुप हो जाते थे।समरथ में कछु दोष न गोसाईं ।
ऋषभ दो भाई-बहन था। बहन बड़ी थी। राम दयाल बाबू उसकी शादी एक अच्छा सा घर परिवार देखकर कर दिए थे | ऋषभ को बड़ी बहन बहुत मानती थी। उसका पति इंजीनियरिंग कॉलेज में बड़ा बाबू थे। उस कॉलेज में उनकी काफी पूछ थी। रामदयाल बाबू और ऋषभ अपनी बड़ी बहन के परिवार से संतुष्ट एवं खुश रहते थे। ऋषभ भले ही कलकत्ता में पढ़ता था लेकिन उसकी दीदी हमेशा उसका हालचाल लेती रहती थी। ऋषभ एक अच्छे इंस्टीच्युशन से बी० टेक० डिग्री लेकर एक अच्छा पैकेज पर नौकरी कर रहा था| दुर्भाग्य कह लीजिये, उसकी मुलाक़ात वहीं नौकरी करनेवाली लड़की से हो गयी। पहली नजर में ही दोनों एक दूसरे को चाहने लगे। दोनों अपने-अपने माता-पिता को शादी के लिए राजी कर लिए। शादी धूमधाम से संपन्न हुई लेकिन कौन जानता था कि वह शादी ऋषभ के जीवन में बर्बादी लेकर आयेगी।
शादी के तुरत बाद ऋषभ कतिपय कारणों से मानवी को हनीमून पर न ले जा सका। दोनों अपने कर्म-स्थल कलकाता में ही हंसी-खुशी रहे। शादी के लगभग छ: महीना बाद हनीमून का मुहूर्त बना। दोनों थाईलैंड घुमने गए। फुकेट,पटाया, फी-फी आईलैंड,चिआंग माई आदि जगहों का भ्रमण करके जब लौट रहे थे तो मानवी के इच्छानुसार कलकत्ता का फ्लाईट न लेकर बंगलौर का फ्लाईट लिया गया। वे दोनों रात के दस बजे बंगलौर लैंड किये और एक होटल में रूम लेकर आराम करने लगे। हलाकि वहाँ मानवी के मामा का भी डेरा था जहाँ उसकी मामी तथा दो ममेरे भाई-बहन भी रहते थे।
मानवी को शराब पीने की बुरी आदत थी। उधर से ही वाइन के दो-चार बोतल लेकर आयी थी। जाड़ा का समय था। रात के ग्यारह बज रहे थे। मानवी रात में ऋषभ से शराब के साथ खानेवाला कुछ नमकीन बाजार से लाने के लिए कहा। ऋषभ लाने के लिए गया भी। लेकिन दुर्भाग्य देखिये, कुछ नहीं मिल सका और ऋषभ खाली हाथ लौट आया। जैसे ही ऋषभ होटल के कमरे में आकर बोला कि बहुत दूर तक नमकीन खोजने गया था लेकिन नहीं मिल सका, मानवी आपे से बाहर हो गयी, आग-बबूला हो गयी।उग्रता इतनी कि ऋषभ के लाख समझाने के बाद भी मानवी थोड़ी सी भी नरम नहीं हुई । कमरे में जोर-जोर से बोलने लगी – “ मेरा नसीब फुट गया था कि इस गंवार- बेहूदा से शादी रचा ली। कितना अच्छा-अच्छा लड़का मुझसे शादी करना चाहता था। लेकिन इस बुच्चर से शादी करके मैं नरक में आ गयी, मेरा जीवन को बर्बाद करके रख दिया| ऋषभ बोला- “देखो, होटल में ये सब अच्छा नहीं लगता है। मैंने बहुत प्रयत्न किया था,बहुत दूर तक खोजते-खोजते गया भी था लेकिन नहीं मिला तो मैं क्या कर सकता था?”
“ज्यादा धूर्त बनने की कोशिश मत करो, मैं सब समझती हूँ। तुम्हारा परिवार में एडवांसनेस नाम का कोई चीज ही नहीं है,जीवन भर माँ के पल्लू पकड़ कर रहने वाला बेबकूफ आदमी हो तुम । जो बुड्ढा-बुड्ढी कहता है, वही कर-करके मेरे जीवन को नरक बना दिए हो । ऋषभ बहुत देर तक तो चुप था लेकिन जब माँ-बाप तक बात आ गयी तो उससे रहा न गया।
उसने कहा–” मैं भी देखा हूँ तुम कितने बड़े घर की हो। आजतक मुझे ससुराल का एक सूट भी नसीब नहीं हुआ, कभी प्रणाम करने पर तुम्हारा माँ- बाप आशीर्वादी में पांच रुपया भी नहीं दिया।फिरभी आज तक किसी से कुछ नहीं कहा| केवल तुम और तुम्हारा परिवार मुँह से बड़का है,कर्म से नहीं । पापा-मम्मी के लाख मना करने पर भी मैंने तुझसे यही दिन देखने के लिए शादी की थी। तुम इतना गिर जायेगी यह मैं सपना में भी नहीं सोचा था। देखो मेरा मुँह न खुलवाओ नहीं तो मैं तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के बारे में बहुत कुछ उगल सकता हूँ ”
“ देखो, मेरे परिवार का नाम मत लो। आज तो घोंघा का भी मुँह खुल गया है। तुम अभी तक मेरा रूप नहीं देखा है। अब मैं दिखा देती हूँ अपना सही रूप।”इतना बोलती हुई अपना स्ट्रौली में जल्दी-जल्दी कुछ सामान पैक की और उसे लेकर रूम से निकलने लगी।ऋषभ रोकने का बहुत प्रयास किया लेकिन नहीं रुकी। होटल के नीचे तक गया लेकिन जबरदस्ती ऑटो पर बैठ गयी और ऑटोवाले से बोली – “भैया, रेलवे स्टेशन ले चलो|”
ऋषभ बहुत चिंतित हो गया। इस अनजान शहर में रात के बारह बजे वह क्या कर सकता था? थोड़ी देर के लिए उसने खुद पर गुस्सा किया। “मैं उसकी कुछ और बातें सुन लेता, बर्दाश्त कर लेता, तो यह नौबत न आती।” काफी देर तक खुद को कोसने के बाद उसने तय किया कि वह स्टेशन पर जाकर अपनी गलती मान लेगा। तुरंत पैंट-शर्ट पहना और स्टेशन की ओर चल दिया। स्टेशन पर उसने बहुत खोजा, पर वह नहीं मिली। अनाउंसमेंट करवाया, फिर भी कोई सुराग नहीं मिला। निराश होकर वह स्टेशन से लौट आया, उस समय तक सुबह हो गई थी| उसने उसके घर पर फोन किया, लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। अपने घर पर फोन किया, वहां भी कोई अता-पता नहीं था। ऋषभ के पिताजी अचरज जताते हुए बोले, “वह तो तुम्हारे साथ हनीमून पर गई थी। ऐसा क्या हुआ जो यहाँ फोन करके पूछताछ कर रहे हो?” तब ऋषभ ने सारी बात विस्तार से बता दी। इस खबर से उसकी माँ और पिताजी काफी दुखी हुए।
मानवी न तो अपने ससुराल गई थी और न ही मायके। उस रात उसने ऋषभ के सामने ऑटो वाले से रेलवे स्टेशन चलने को कहा था, लेकिन बाद में वह मामा के घर चली गई थी। मामा-मामी ने इस बात को उसकी माँ, यानि मानवी की माँ, से नहीं बताया था। दोनों के माँ-बाप परेशान हो गए थे। फोनाफानी शुरू हो गई थी। अंत में पता चला कि मानवी उस रात रेलवे स्टेशन न जाकर मामा के यहाँ चली गई थी और कई दिनों तक इस बात को छुपाकर रखा था।
लगभग एक महीने बाद वह अपने गाँव गई और वहाँ अपने पिता के साथ महिला थाने में जाकर दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा कानून के तहत मारपीट का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करबा दी । ऋषभ को यह तब पता चला जब महिला थाने के दरोगा, जिसे केस का आई० ओ० बनाया गया था, ने फोन किया। ऋषभ, उसकी माँ और उसके पिताजी तीनों घबरा गए। ऋषभ कोलकाता में नौकरी कर रहा था, लेकिन कुछ दिनों की छुट्टी लेकर घर आया था और फिर वापस नहीं गया। अब तो थाने, कोर्ट, कचहरी के चक्कर लगाने में ही दिन कटने लगे।
ऋषभ अतीत में गोंता लगाने लगा-” मैंने पापा से उसकी शान-शौकत को कितना बढ़ा-चढ़ाकर बताया था, उसे जीवनसंगिनी बनाने के लिए कितना झूठ बोला था। इसके बावजूद उसमें इतनी अकड़! “सच में, अहंकार करने के लिए ओहदा और औकात की जरूरत नहीं होती; यह व्यक्ति विशेष की मानसिकता पर निर्भर करता है। अब समझ में आ रहा है कि शादी से पहले पापा मुझे क्यों इतना सोच-समझकर कदम बढ़ाने की सलाह दिया करते थे।”
तभी दोपहर के खाने का समय हो गया था। माँ ने जब खाना खाने के लिए ऋषभ को पुकारा, तब वह अतीत से बाहर निकला। अगर माँ न पुकारती, तो शायद और भी कई विचार ऋषभ के मन में आते। खाना खाते-खाते ऋषभ माँ से बोला, “माँ,मैं अपना जीवन खुद ही बर्बाद कर लिया | अब मुझे नौकरी पर भी जाने का मन नहीं करता है । वहाँ से कई बार बुलावा आया, लेकिन मैं टाल रहा हूँ। आखिर कब तक इसे टालूंगा ?”
माँ के आँखों में अश्रु आ गए| ऋषभ से छुपाकर आँचल से आंसूओ को पोछती हुई माँ बोली- “कुछ चीजें, बेटा, भविष्य पर छोड़ देनी चाहिए। अगर भगवान अवरोध पैदा करते हैं, तो उसे दूर करने की शक्ति भी देते हैं। इस संकट में ईश्वर ही डाले हैं और वही इसका समाधान भी निकालेंगे| घबराने से कुछ नहीं होता| धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी,आफत काल परखिये चारी”
तभी ऋषभ का मोबाइल बजा। “एक खुशखबरी है—आप सभी की अग्रिम जमानत मंजूर हो गई है। अब किसी बात से डरने की जरूरत नहीं है,” वकील का फोन था।
“बहुत-बहुत धन्यवाद, वकील साहब!” ऋषभ खुशी से उछल पड़ा और बोला, “माँ, जल्दी से पापा को यह खबर दो। माँ, अब मैं नौकरी पर जाऊँगा और झूठे केस का डटकर मुकाबला करूंगा। ईश्वर एक दिन जरूर हम जैसे निर्दोषों को तंग करने वालों को सजा देंगे।”
“हाँ बेटा, एक जीत मिली है, दूसरी जीत भी जल्द ही मिलेगी। मुझे भगवान पर पूरा भरोसा है,”