राह कोई नयी-सी बनाते चलो।
◆छंद:-वाचिक सृग्विणी
◆मापनी:-212 212 212 212
राह कोई नयी-सी बनाते चलो।
दूरियाँ मंजिलों की मिटाते चलो।
जिंदगी में खुशी के कभी फूल हैं।
तो कभी कष्टदायी कई शूल हैं।
शूल को भी गले से लगाते चलो।
राह कोई नयी-सी बनाते चलो।
मुश्किलों में कभी धैर्य खोना नहीं।
सामने मौत को देख रोना नहीं।
फिक्र हो तो धुएँ में उड़ाते चलो।
राह कोई नयी-सी बनाते चलो।
जिन्दगी है कहीं धूप छाया कहीं।
सत्य भी है कहीं मोह-माया कहीं।
धूप में भी स्वयं को तपाते चलो।
राह कोई नयी-सी बनाते चलो।
हो अँधेरा घना रोशनी ढ़ूंढ़ना।
दूसरों के लबों पे हँसी ढ़ूंढ़ना।
जिंदगी में खुशी को लुटाते चलो।
राह कोई नयी-सी बनाते चलो।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली