रावण दहन
#विधा – मनहरण घनाक्षरी
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“रावण ** दहन”
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देखा रावण दहन, आया विचार गहन।
मन के तू रावण को, काहे न मारता है।।
पुतले है फूंकता तू,खुद पे ही थूकता तू।
हृदय के अंदर क्यों, कभी न झांकता है।।
प्रति वर्ष मारता है, पुतले को जारता है।
मन में विकार हैं जो, उसको न जारता।।
अहंकार पालता है,पुण्य को तू टालता है।
पाप में संलिप्त हो तू, रावण को मारता।।
बीत गये युग कई, पाप अभी मिटा नही।
मन के विकार को तू, काहे सम्भालता है।।
करता है पाप खुद, खुद से ही लड़े युद्ध।
मन को सम्भालता न, लिप्सा को मारता है।।
अहंकार भरा हुआ, दिखता तू मरा हुआ।
ब्याल बन गली -गली, फड़ी फुफकारता।।
सज्जन को कष्ट देता, सबकी बलायें लेता।
अपने स्वभाव को तू, कभी नहीं जारता।।
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”…………..✍✍
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”