राम सीता लक्ष्मण का सपना
राम , सीता और लक्ष्मण का सपना
पूर्णाहुति के पश्चात ऋषि पत्नी मंच पर खड़ी हो गईं ,
“ आप सब अतिथियों को प्रणाम करती हूँ और आभार व्यक्त करती हूँ कि आपने हमारे निमंत्रण का मान रखते हुए , दूर दूर से यहां पधारने का कष्ट किया , और हमारे आश्रम का आतिथेय स्वीकार किया। आज यज्ञ का सातवां तथा अंतिम दिवस है , पूर्णाहुति दी जा चुकी है , पिछले सात दिन दूर दूर से आये विद्व्तजन विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखते रहे , जिन्हें आप सबने आदरपूर्वक सुना , अब समय है प्रश्न पूछने का। प्रश्न का अधिकार दिए बिना यह कार्यक्रम पूर्ण नहीं हो सकता। प्रश्न जानने की पहली सीढ़ी है , दूसरों के विचारों का आदर करना , आत्मिक विस्तार की दूसरी सीढ़ी है , उत्तर देना नए प्रश्नों की ओर ले जाने वाला अगला कदम है। इस अर्थ में यहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है , प्रश्न पूछने के लिए ओर उत्तर देने के लिए भी , औऱ यही हमारे गुरुकुल का लक्ष्य है , हम जीवन में यह अनुभव कर सकें कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी अर्थ में हमारा गुरु है , औऱ प्रत्येक गुरु शिष्य भी है। ”
ऋषि पत्नी ने यह कह कर अपना स्थान ग्रहण किया , कुछ पल तक उस वृक्षों से घिरी विस्तृत यञशाला में घिरी शांति , चढ़ते सूरज के साथ जंगल की चुप्पी को और भी गहरा करती रही । फिर पंद्रह वर्ष का एक तेजस्वी युवक खड़ा हुआ ,
“ मेरा नाम भास्कर है , मैं इसी गुरुकुल का शिष्य हूँ , औऱ मेरा प्रश्न राम से है , यद्यपि उन्होंने पिछले सात दिनों मेँ कोई उपदेश नहीं दिया , अपितु अपने भाई के साथ आश्रम की रक्षा का उत्तरदियत्व संभाला है, परन्तु उन्होंने उन सब विद्व्तजनों को सुना है , जिन्हें मैंने सुना है , औऱ मेरे भीतर जो प्रश्न जन्मा है , उसका उत्तर सम्भवतः उन्हीं के पास है , यदि वे आज्ञा दें तो मैं प्रश्न निवेदित करूं !”
राम ने अपना धनुषबाण साथ खड़ी सीता को दे दिया, औऱ स्वयं मंच पर आ गए।
सबको प्रणाम करने के पश्चात उन्होंने कहा , “ पूछो भास्कर , मैं यथासम्भव उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा ।”
भास्कर ने प्रणाम करने के पश्चात कहा ,” राम वन मेँ आपकी विनम्रता , उदारता , करुणा , साहस की कथाएं प्रचलित हो रहीं हैं , यहां आपने सबको अपना समझा है , औऱ अपनी पत्नी तथा भाई के साथ अपनी कुटिया के द्वार सभी प्रार्थियों के लिए खोल दिए हैं , इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि एक दिन आप योग्य राजा बनेंगे, परन्तु आपका जैसा मनुष्य हजारों वर्षों मेँ एक बार जन्म लेता है , परन्तु राज्य औऱ राजा तो निरंतर बने रहते हैं। नगरों मेँ रहने वाले साधारण जन , प्रायः सम्मानपूर्वक जीवन नहीं जी पाते। “
उत्तर देने से पूर्व राम की दृष्टि सीता औऱ लक्ष्मण की ओर गई और वे मुस्करा दिए ,
“ इस विषय पर हमारी प्रायः चर्चा होती है , और मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ, नगर प्रकृति से टूट जाता है , और नागरिकों मेँ धन जोड़ते चले जाने की लालसा जाग उठती है , एक वर्ग अधिक शक्तिशाली हो उठता है , और सारे नियम , कानून , वह अपने लाभ के लिए बनाता चला जाता है , मनुष्य ‘सामान्य ‘और ‘विशेष ‘हो उठते हैं। ”कुछ पल राम अपने चिंतन मेँ लीन प्रतीत हुए , फिर उन्होंने कहा , “ नगर मेँ मनुष्य का सामर्थ्य अर्थव्यवस्था से जुड़ा है , हम ऐसे कानून बना सकते हैं , जिसमें कोई व्यक्ति विशेष अपनी आवश्यकताओं से बहुत अधिक न पाए , और न ही कोई दीनहीन रह जाए। ”
“ परन्तु यदि मनुष्य को अपनी प्रतिभा और परिश्रम का उचित पुरस्कार नहीं मिलेगा , तो वह प्रयत्नशील नहीं रहेगा। ” किसी आचार्य ने कहा।
“ सीता तुम इसका उत्तर देना चाहोगी ?” राम ने सीता को देखते हुए कहा ।
सबकी दृष्टि सीता की ओर मुड़ गई , सीता राम के धनुषबाण को उठाये मंच पर आ गई , उनके तेज और आत्मविश्वास से यह स्पष्ट था कि वह स्वयं भी धनुर्धर हैं।
हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए उन्होंने कहा ,
“ आचार्य , आज्ञा दें। ”
“ अवश्य देवी सीता , अपने दृष्टिकोण से हमें लाभान्वित करें ।”
“ आचार्य , धन की प्रप्ति मात्र परिश्रम से नहीं होती , वह होती है उचित अवसर तथा उचित ज्ञान से , नया ज्ञान पुराने का ऋणी होता है , और यह पुराना ज्ञान समाज के प्रत्येक व्यक्ति की सम्पति होता है , और अनुकूल अवसर भी समाज के सभी भागों के प्रयत्न से धीरे धीरे तैयार होते हैं , इसलिए किसी को भी सीमा से अधिक धन संचय का अधिकार नहीं होना चाहिए। ”
“ उस सीमा का निर्णय कौन करेगा ? “ आचार्य ने पूछा।
“ उसका निर्णय आप विद्व्तजन और प्रजा के योग्य व्यक्ति करेंगे , वास्तव में लक्ष्मण इस चर्चा का भाग बनने के लिए उत्सुक है, नियम कैसे हों , यह समझने के लिए वे कई प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर रहे हैं ।” जैसे ही राम ने अपनी बात समाप्त की , सबकी दृष्टि एक पल के लिए स्वतः लक्ष्मण की ओर मुड़ गई , और लक्ष्मण ने जहाँ अपना धनुषबाण लिए खड़े थे , वहीं से हाथ जोड़ दिये ।
“ परन्तु राम कानून चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न बना दिए जाएँ , उनकी सफलता उनके पालन करने वालों पर निर्भर करेगी , और चरित्र की दृढ़ता का वचन कोई नहीं दे सकता। ” किसी किसान ने खड़े होकर हाथ जोड़ते हुए कहा।
“ इसका उत्तर भी देवी सीता देंगी। ” राम ने हाथ जोड़कर मुस्कराकर कहा , और सीता से धनुषबाण ले लिया।
सीता ने एक बार फिर से सभा को हाथ जोड़कर कहा , “ तो आवश्यकता है हम मनुष्य के आंतरिक निर्माण की प्रक्रिया को समझें , हमारी माताएं कर्मठ और स्नेहशील हों , मातृत्व का सम्मान हो , और मातायें पहले सात वर्ष अपने शिशु का लालन पालन स्वयं करें , हमारे शिशु कुछ वर्ष प्रकृति की गोद में विभिन्न कलाओं में पारंगत हों। समय के साथ अन्य व्यवसाय भी सीखें , इन सब में गुरु शिष्य के प्रति स्नेह बनाए रखें , शिक्षा मनुष्य के निर्माण का साधन है , इसका दान प्रतिदान इसी भाव से हो। मनुष्य का चरित्र स्नेह तथा ज्ञान से बनाया जा सकता है । “
प्रश्न सभी शांत हो गए , तो भोजन पश्चात ये तीनों कुटिया लौट आये , देखा तो भास्कर वहां पहले से ही उपस्थित है।
“ क्षमा चाहता हूँ राम , अभी मेरे प्रश्न समाप्त नहीं हुए। ”
“ हाँ पूछो , “ राम ने उसके लिए आसन बिछाते हुए कहा।
“ राम ,मैं ऋषिपुत्र हूं , वन मेरी माँ भी है और गुरू भी, यहाँ के झरनों ,पशु पक्षियों , बादलों की गड़गड़ाहट में संगीत को सुना है, अपने बच्चे को भोजन कराती मैना में नृत्य देखा है , प्रकृति के स्वयं को बार बार दोहराने में गणित को देखा है, यहाँ की वनस्पति , मिट्टी मेरी नस नस में बसी है , और जब मैं ध्यान में इन सबका चिंतन करता हूँ तो मानो ब्रह्मांड स्वयं अपने भेद खोलने लगता है, यहाँ हम तामसिक पर्वृतियों से दूर , ज्ञान की पिपासा में जीते हुए अपने जीवन का सुख पा जाते हैं , यहाँ कला, ज्ञान, शांति सब हैं , फिर नगर बसाकर जीवन और वातावरण को भ्रष्ट क्यों किया जाय ?”
“ इसका उत्तर तो तुम्हें इतिहास में ढूंढना होगा , मैं तो इतना जानता हूँ , कोई अदृश्य नियम इस प्रकृति को चला रहा है , और मनुष्य पल पल उसके अनुसार ढल रहा है , उसके वश में मात्र इतना है कि वह स्वयं को ब्रह्माण्ड से और समाज से जोड़े रखे , समाज का निर्माण जिन भी कारणों से हुआ हो , अब उसका लौट कर जाना असंभव है , परंतु नगर जनों को सहज होने का प्रयत्न करना चाहिये, इसीलिये सीता ने आरम्भिक शिक्षा वन में करने की बात कही थी ।”
“ जी , मुझे उत्तर मिल गया। ”
भास्कर चला गया , तो लक्ष्मण ने कहा , “ प्रश्नों के साथ जन्में हैं हम , और सुख सुविधाओं का मोह भी है , कभी तो ऐसा समाज बनेगा , जब दोनों में संतुलन होगा। ”
राम मुस्करा दिए , “ हाँ लक्ष्मण हम करेंगे ऐसे समाज का निर्माण। ”
आसमान में बादल घिर रहे थे , वे तीनों अपने विचारों के साथ , शांत बैठे थे।
—-शशि महाजन