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25 May 2024 · 4 min read

राम ने कहा

राम ने कहा

“ राम , राम “ बाहर से आवाज आई , लक्ष्मण ने बाहर आकर देखा , तो पाया दो प्रोड़ अवस्था के व्यक्ति द्वार पर हैं ,

“ आइये अतिथिगण , भैया और भाभी , समीप ऋषि पाणिनि से मिलने गए हैं, उन्हें आने में समय लग सकता है , तब तक यदि आप चाहें तो भीतर उनकी प्रतीक्षा कर सकते हैं। ”

दोनों व्यक्ति कुछ पल दुविधा में खड़े रहे , फिर एक ने कहा , “ इतनी दूर इस वन में हम पहली बार आये हैं, और राम से बिना मिले जाने का मन नहीं है, परन्तु सूर्यास्त से पूर्व घर पहुंचना भी आवश्यक है , अमावस की रात है , यदि मार्ग भटक गए तो बहुत कठिनाई हो जायगी , फिर जंगली जानवरों का भय भी है। ”

“ आप जैसा उचित समझें महानुभाव ।”

इससे पहले कि लक्ष्मण कुछ और कहते , राम और सीता दूर से आते हुए दिखाई दिए , दोनों अतिथि , वहीँ मंत्रमुग्ध से हाथ जोड़कर खड़े हो गए, लक्ष्मण भी इसतरह एकटक देखने लगे जैसे पहली बार देख रहें हों , वो छबि कुछ थी ही ऐसी; संतुलित आकार, दमकती त्वचा , सौम्य मुस्कान , करूणमयी आँखें , मनुष्य का इससे अधिक सुन्दर और तेजस्वी रूप संभव ही नहीं।

राम ने पास आकर लक्ष्मण से कहा , “ क्यों भाई , इस तपती दुपहरी में अतिथिगण के साथ यहाँ क्यों खड़े हो ?”

लक्ष्मण झेंप गए, “ बस भैया , आपको आते देखा तो रुक गए। ”

“ अच्छा चलो , आइये। ” राम ने अतिथि के नमस्कार के प्रतियुत्तर में हाथ जोड़ते हुए कहा।

भीतर आकर पहले व्यक्ति ने कहा , “ ये तो हम अयोध्या में आ गए , भिंतियों पर वहीं के चित्र प्रतीत होते हैं। ”

“ जी “ सीता ने कहा , “ जो मन में था वो भिंती पर उतार दिया , और यह जो उत्सव् मनाते आप लोग देख रहे हैं , यह हमारे गुरुजन और बंधु बांधव हैं। ”

दोनों अतिथयों ने पुनः हाथ जोड़ दिए।

“ इस कुटिया में आकर हमें एक अनोखे संतोष का अनुभव हो रहा है , परन्तु अब हमें जाने की आज्ञा दें , इतनी दूर आकर यदि आपके दर्शन न होते तो हमें दुःख होत। ” उनमें से एक अतिथि ने कहा ।

“ आप कहाँ से हैं महोदय ?” लक्ष्मण ने पूछा।
“ हम विष्णुपुरी से हैं। ” दूसरे अतिथि ने कहा ।
“ विष्णुपुरी तो मैं बचपन में गई हुई हूँ , बहुत सुंदर स्थान है, मुझे तो वहां की भाषा का एक लोकगीत भी आता है। ” यह कहते हुए सीता ने गुनगुनाना आरम्भ कर दिया , उनकी धुन पकड़ दोनों व्यक्ति ख़ुशी से झूम उठे , और दिल खोलकर गाने लगे। गाना समाप्त हुआ तो राम ने कहा ,

“ मुझे इसके बोल समझ नहीं आये , पर आप तीनों ने बहुत सुर में गाया। ”

“ बचपन में गाते थे ऐसे गीत , परंतु जब से हमारी भूमि पर यक्षों ने अधिकार कर लिया है , हमारी भाषा , हमारे गीत , हमारी भावनाएं , हमारा इतिहास , हमारी संस्कृति , सब छूट रहा है , हमारे ही बच्चे , अपनी भाषा , पूर्वजों के गीत , सीखना नहीं चाहते। राज्य के सारे कार्य यक्ष भाषा में होते हैं, गुरुकुलों में उन्हीं की भाषा का प्रयोग होता है। हमारे बच्चे यक्षों के पूर्वजों का इतिहास जानते हैं, उन्हीं का संजोया ज्ञान सीखते हैं । राम हमारी आत्मा घायल है। ” दूसरे व्यक्ति ने कहा और दोनों के मुख पर विषाद छा गया ।

“ मैं आपके दुःख को समझता हूँ , पर यह लड़ाई तो आपको स्वयं लड़नी होगी। ” राम ने कहा।
“ कैसे राम, हम निर्बल हैं। ”
“ भाषा सशक्त नहीं तो मनुष्य भी सशक्त नहीं , आप भाषा का निर्माण करो , भाषा आपका निर्माण करेगी। ”
“ राम, यदि हमें अयोध्या से सहयता मिल जाये तो —“
अभी उस व्यक्ति की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि राम ने उत्तेजना से कहा ,” फिर वही बात , भाषा आपका अपना प्रतिबिम्ब है , उसके लिए अपनी छबि सुधारिए। ”
” बिना सुविधाओं के कैसे होगा राम ?”
” यक्षों को योग्य बनाने के लिए कोई बाहर से नहीं आया था , यह आग उनकी अपनी थी, आप अपनी भाषा में ज्ञान को बढ़ाइये , यक्षों के ज्ञान को अपनी भाषा में ले आइये , अपने जैसा सोचने वाले लोग इकट्ठा कीजये , इसके लिए अवश्य अयोध्या जाइये, और वहां के पुस्तकालय की सारी पुस्तकों का अनुवाद क़र डालिये , अपने पूर्वजों के ज्ञान को भी संचित कीजिये, आपका अर्धचेतन मन उन्हीं की धरोहर है। बिना उन्हें समझे स्वयं को नहीं समझ पायेंगे , और यदि स्वयं को नहीं समझेंगे तो आगे का चिंतन कैसे होगा! ”

“ तो आपका यह कहना है कि मनुष्य और भाषा , एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ”
“ जी “ राम मुस्करा दिए।
“ और हमारा समय हमसे इस यज्ञ के लिए आहुति मांग रहा है। ”
“ जी। ” इस बार लक्ष्मण ने चुटकी ली।
“ तो प्रभु हमें आज्ञा दें। ”
“ ऐसे कैसे , आप भोजन करके जाइये। ” सीता ने कहा।
“ क्षमा माँ , आज आपके प्रसाद के बिना ही जाना होगा , आहुति को और नहीं टाला जाना चाहिए। ”
सीता ने कुछ फल यात्रा के लिए बांध दिए , और राम भीतर जाकर , ताम्रपत्र पर लिखी ऋगवेद की प्रति ले आये , “ यह लीजिये , इसीसे अनुवाद आरम्भ करिये। ” उन्होंने प्रति अतिथि को देते हुए कहा।

वे दोनों राम, सीता , लक्ष्मण का आशीर्वाद लेकर उत्साहित मन से बढ़ चले।

—-शशि महाजन

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