आगमन वसंत का
आगमन वसंत का
आया नहीं वसंत द्वार पर,
कभी लगाने फेरे ।
बिन वसंत ही इस जीवन को,
रही उदासी घेरे।
मैं वसंत से किए शिकायत,
नहीं जान पाई थी।
कब वसंत ने आ जीवन में,
कुंडी खड़काई थी।
रही किशोरी यही सोचती,
पास न आया मेरे ।
शिक्षा की सीढ़ी देकर वह,
लगा गया था फेरे।
फिर वसंत तब भी आया जब,
जीवन में वे आए।
रेशम से भी नाजुक रिश्ते,
फौलादी हो आए।
फिर वसंत की हवा बही,
जब फूल खिले आंगन में.
समझ न पाई फिर भी उसको,
था वसंत तन मन में।
बिटिया की सगाई जिस दिन थी,
थी बहार वासंती ।
बेटा ब्याह रचा कर लाया,
एक परी सुंदर सी।
लेकिन अब पहचान चुकी हूं,
फिर वसंत घर आया।
आकर मेरी पुत्रवधू की,
गोदी में मुस्काया।
सुनकर उसके बैन तोतले,
हाय मरी जाती हूँ ।
उन मासूम अदाओं पर,
मैं ,सौ सौ बलि जाती हूँ ।
मैं वसंत को जान चुकी हूँ ,
लगा चुका है डेरे ।
नहीं जान पाई थी, पहले,
सदा रहा जो घेरे।
रहा दृष्टि का दोष मुझे था,
नहीं देख पाई थी।
मैं आकंठ रही वासंती,
कहाँ जान पाई थी।
अंतर्मन की छुपी भावना ,
ही ऊपर आती है ।
दृष्टि बदलने से ही सारी,
सृष्टि बदल जाती है।
पतझड़ का आना भी तो
इक आहट नव वसंत की।
नव जीवन की, नव उमंग की,
नूतन परिवर्तन की।
स्वागत है वसंत का हर पल,
जब भी वह आ जाए।
जाने कौन रूप में आकर,
भौचक्का कर जाए।
इंदु पाराशर
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