रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस 16वीं सदी में रचित लोक ग्रन्थ के रूप में मान्य महाकाव्य है, जो गोस्वामी जी को विशेष यश दिलाता है और राम की बहुविध छवियाँ जन-जन तक पहुँचाने का माध्यम भी बनता है । इसके कथानक भले ही वाल्मीकि के ‘रामायण’ से प्रेरित हों, परन्तु इसकी पंक्तियों में , शब्दों में गोस्वामी जी रूह समायी है । जो पढ़ता है, भाव-विभोर हो जाता है, विशेषकर तुलसी की योग्यता पर । इसके प्रमुख पात्र राम हैं और उनकी मर्यादा । वाल्मीकि रामायण के नायक राम एक सांसारिक व्यक्ति के रूप में निरुपित हैं, वहीं तुलसी के राम विष्णु के अवतार के रूप में उपस्थित हैं । तुलसीदास रामचरितमानस का लेखन प्रारंभ करते हुए इसके स्रोतों पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं-
“नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्, रामायणे निगदितं क्वचिद्न्यतोऽपि ।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा, भाषानिबन्धमतिमन्जुलमातनोति ।।
अर्थात् अनेक पुराण, वेद और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथ जी की कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा में विस्तृत करता है । (देखें रामचरितमानस के बालकाण्ड का सातवाँ श्लोक)”
रामचरितमानस की रचना प्रक्रिया और इस दौरान घटित घटनाएं बेहद रोमांचक हैं । संवत् 1628 में वह अयोध्या गए। कहते हैं उन्होंने हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या गए थे। तुलसीदास प्रयाग में माघ मेला के दौरान कुछ दिन के लिए ठहरे थे। माघ मेले के छठवें दिन के बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य ऋषि से मुलाकात हुई। वहाँ उस समय वही कथा चल रही थी, जो तुलसीदास जी ने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। यह कालखण्ड उन्हें रामचरितमानस लिखने के लिए जमीन तैयार कर रहा था । माघ मेला समाप्त होने के बाद तुलसीदास जी प्रयाग से काशी आ गए । काशी में प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे । प्रचलित कथा है वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व भाव जागृत हुआ और संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। काशी तो काशी है, दिन में वह जितने पद्य रचते रात्रि में वह सब लुप्त हो जाते। ऐसा नियमित होने लगा। कथा है आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न में भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य की रचना करो। जो अपनी कोख से जन-कल्याण के लिए साहित्य निकालते हैं, वह इस मर्म को समझ सकते हैं । तुलसीदास जी की नींद उचट गयी और वह उठकर बैठ गए । काशी तो शिव का है । राह तो दिखानी ही थी, सो शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। शिव जी ने प्रसन्न होकर कहा- ‘तुम अयोध्या में जाकर रहो और जन-भाषा में काव्य-रचना करो। इस प्रकार तुलसीदास जी काशी से अयोध्या आ गए । तुलसीदास ने संवत् 1631 में रामनवमी के दिन रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की । काशी में रामचरितमानस को नष्ट करने के संदर्भ में भी कथाएं प्रचलित हैं । एक दिन काशी में तुलसीदास जी ने बाबा विश्वनाथ और अन्नपूर्णा जी को रामचरितमानस सुनाया था और रात में यह कृति विश्वनाथ मन्दिर में रख दी गयी। ऐसा माना जाता है कि प्रात: जब मन्दिर के पट खोले गये तो इस कृति पर ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ लिखा पाया गया और नीचे शिव द्वारा उसे प्रमाणित किया गया था । यह बात काशी के पण्डितों को रास नहीं आई । वह दल बनाकर तुलसीदास जी की आलोचना तथा उनकी पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। वह पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे थे। चोरों ने तुलसीदास जी के निवास के बाहर दो युवकों को धनुष-बाण लिये पहरा करते देखा । उनके दर्शन मात्र से चोरों की बुद्धि बदल गयी । तुलसीदास जी जब यह ज्ञात हुआ तो अपनी कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रखवा दी। इसके बाद तुलसीदास अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति तैयार की, जिसके आधार पर इस कृति की दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं ।
इस महाकाव्य की रचना गोस्वामी जी ने अपनी अनुपम शैली में दोहों, चौपाइयों, सोरठों तथा छंदों का आश्रय लेकर किया है । कहते हैं इसके लेखन में गोस्वामी जी ने 2 वर्ष, 7 माह और 26 दिन का समय लिया था। तुलसीदास की यह महान काव्यकृति राम विवाह के दिन संवत् 1633 में पूर्ण हुई थी । यह कैसा अनुपम उपहार था, अपने आराध्य नायक के लिए, जानकर सुखद लगता है। कोई भी साहित्यकार अपने समय की घटनाओं पर पैनी नज़र रखता है और जनसामान्य के कल्याण के लिए अपनी कोख से साहित्य जनता है । बदलते परिवेश में इन पंक्तियों पर संदेह हो सकता है और करनी भी चाहिए, पर तुलसी की योग्यता और उनके सामाजिक सरोकार पर संदेह नहीं किया जा सकता है । रामचरितमानस निसंदेह एक वैश्विक कृति है और उसे विशेष आदर प्राप्त है । देश में भी और सीमा पार भी । न जाने कितनी भाषाओँ में यह अनुदित हुई है और न जाने कितने लोग इस कृति को अपना आदर्श मानते हैं । तर्क-वितर्क-कुतर्क तो मानव का स्वभाव है, उसका भी स्वागत होना चाहिए ।