रहने वाली वो परी थी ख़्वाबों के शहर में
शहर में था उसका एक शीशे का महल।
उस महल में देखा करती थी सतरंगी सपने,
उसे क्या पता था सपने झूठे निकलेंगे सारे।
हुआ यूँ कि एक दानव की नज़र पड़ गयी
उस नाज़ुक सी परी पे, उसने तोड़ डाला
एक ही वार में उसका वो शीश-महल,
कर क़ैद उड़ चला उसे सोने के ज़िंदान में।
बहुत हाथ- पैर मारती रही थी, रोई थी,
चिल्लाई थी, सबसे गुहार भी लगाई थी,
पर किसी ने बढ़ कर उसे बचाया नहीं था।
सब मुस्कुरा रहे थे उसके शीश- महल के
टूट जाने पर, उसके यूँ बेबस हो जाने पर।
दानव उस परी का बहुत ख़्याल रखता था,
मोहब्बत से देखा करता था, उसे अपने
पलकों पे बिठा कर रखता था, लेकिन
फिर भी क़ैद रखता था उसे ज़िंदान में।
उसे नफ़रत होती थी दानव से, देख कर
उसे हिकारत से नज़र फेर लिया करती थी
अपनी, उसने बहुत तरतीबे की क़ैद से
निकलने की, हाथों को ज़ख़्मी किया, खिज
कर सर भी फोड़ा अपना, सारी तद् -बीरें
नाक़ाम हुईं,
“हार कर उसने दानव से कहा,
सुनो, तुम जो मुझ से इतनी मोहब्बत करते
हो रिहाई क्यों नहीं दे देते मुझे, “मैं वापस
जाना चाहती हूँ अपने ख़्वाबों के शहर में,
फिर से बनाना चाहती हूँ अपने ख़्वाबों का
शीश- महल।”
सुन कर, दानव ने कहा,
“तुम हो मेरे ख़्वाबों की परी, तुम में मेरी
जान बसती है, कैसे आज़ाद कर दूँ”,
“तुम्हें देखे बिना जीना अब तो मुश्किल है,
बड़ी मुश्किल में अब तो मेरा दिल है”
तुम जो बोलोगी सब मैं करूँगा, पर अब
मैं तुम्हें आज़ाद नहीं करूँगा।”
परी ने लाख कोशिश की, उसे बहलाने की,
पर न हुई कामयाब। थक कर सोचा उसने,
“क्यों न इससे मोहब्बत का झूटा नाटक करूँ,
फिर मौक़ा मिलते ही इसे चपत दे जाऊँ।”
अब वो धीरे- धीरे खुद को बदलने लगी थी,
दानव की तरफ़, मीठी नज़रों से देख कर
मुस्कुराने लगी थी, प्यार से मीठी- मीठी
बातें करने लगी थी।
दानव तो पहले हैरान हुआ। फिर लगा
उसे, शायद उसके प्यार का असर होने
लगा है।
अब उसे भरोसा होने लगा था परी पे।
फिर उसने आज़ाद कर दिया परी को।
मौक़ा पा कर परी ने उसे बेहोशी की
दवा पिला दी। अब वो दानव दुनिया
से बे- ख़बर था।
परी आज़ाद हो गयी थी, निकल गयी थी
वो आसमा की सैर करने।
लेकिन दिल उसका बहुत उदास था, याद
आ रही थी उसे दानव की बार- बार।
दिल बे- सुकून था, मन बेचैन था।
“कभी दिल चाहता था, लौट जाने को,
कभी मन सोचता था, इतनी मुश्किल
से तो आज़ादी मिली है, उस भयानक
चेहरे वाले दानव के पास क्यों जाऊँ,
जिसको देख कर कराहियत होती है। ”
“लेकिन लाख दलील देने के बावजूद,
वो कामयाब नहीं हो पायी, दिल को
समझा नहींं पाई, फिर लौट आई वो
दानव के महल में। ”
उसे भयानक चेहरे वाले दानव से
मोहब्बत हो गयी थी, बे- इंतेहा
हो गयी थी।
उसने तक़दीर के आगे, आख़िर सर
झुका ही दिया था अपना।
मोहब्बत के एहसास ने भुला दिया था,
उसे, उसका ख़्वाबों का शहर।
रहने वाली वो परी थी ख़्वाबों के शहर में,
शहर में था उसका एक शीशे का महल,
उस महल में देखा करती थी सतरंगी सपने,
उसे क्या पता था सपने झूठे निकलेंगे सारे,
हुआ यूँ कि एक दानव की नज़र पड़ गयी
उस नाज़ुक सी परी पे, उसने तोड़ डाला
एक ही वार में उसका वो शीश-महल,
कर क़ैद उड़ चला उसे सोने के ज़िंदान में,
बहुत हाथ- पैर मारती रही थी, रोई थी,
चिल्लाई थी, सबसे गुहार भी लगाई थी,
पर किसी ने बढ़ कर उसे बचाया नहीं था,
सब मुस्कुरा रहे थे उसके शीश- महल के
टूट जाने पर, उसके यूँ बेबस हो जाने पर,
दानव उस परी का बहुत ख़्याल रखता था,
मोहब्बत से देखा करता था, उसे अपने
पलकों पे बिठा कर रखता था, लेकिन
फिर भी क़ैद रखता था उसे ज़िंदान में,
उसे नफ़रत होती थी दानव से, देख कर
उसे हिकारत से नज़र फेर लिया करती थी
अपनी, उसने बहुत तरतीबे की क़ैद से
निकलने की, हाथों को ज़ख़्मी किया, खिज
कर सर भी फोड़ा अपना, सारी तद् -बीरें
नाक़ाम हुईं, “हार कर उसने दानव से कहा,
सुनो, तुम जो मुझ से इतनी मोहब्बत करते
हो रिहाई क्यों नहीं दे देते मुझे, “मैं वापस
जाना चाहती हूँ अपने ख़्वाबों के शहर में,
फिर से बनाना चाहती हूँ अपने ख़्वाबों का
शीश- महल।” सुन कर, दानव ने कहा,
“तुम हो मेरे ख़्वाबों की परी, तुम में मेरी
जान बसती है, कैसे आज़ाद कर दूँ”,
“तुम्हें देखे बिना जीना अब तो मुश्किल है,
बड़ी मुश्किल में अब तो मेरा दिल है”
तुम जो बोलोगी सब मैं करूँगा, पर अब
मैं तुम्हें आज़ाद नहीं करूँगा।”
परी ने लाख कोशिश की, उसे बहलाने की,
पर न हुई कामयाब। थक कर सोचा उसने,
“क्यों न इससे मोहब्बत का झूटा नाटक करूँ,
फिर मौक़ा मिलते ही इसे चपत दे जाऊँ।”
अब वो धीरे- धीरे खुद को बदलने लगी थी,
दानव की तरफ़, मीठी नज़रों से देख कर
मुस्कुराने लगी थी, प्यार से मीठी- मीठी
बातें करने लगी थी।
दानव तो पहले हैरान हुआ। फिर लगा
उसे, शायद उसके प्यार का असर होने
लगा है।
अब उसे भरोसा होने लगा था परी पे।
फिर उसने आज़ाद कर दिया परी को।
मौक़ा पा कर परी ने उसे बेहोशी की
दवा पिला दी। अब वो दानव दुनिया
से बे- ख़बर था।
परी आज़ाद हो गयी थी, निकल गयी थी
वो आसमा की सैर करने।
लेकिन दिल उसका बहुत उदास था, याद
आ रही थी उसे दानव की बार- बार।
दिल बे- सुकून था, मन बेचैन था।
“कभी दिल चाहता था, लौट जाने को,
कभी मन सोचता था, इतनी मुश्किल
से तो आज़ादी मिली है, उस भयानक
चेहरे वाले दानव के पास क्यों जाऊँ,
जिसको देख कर कराहियत होती है। ”
“लेकिन लाख दलील देने के बावजूद,
वो कामयाब नहीं हो पायी, दिल को
समझा नहींं पाई, फिर लौट आई वो
दानव के महल में। ”
उसे भयानक चेहरे वाले दानव से
मोहब्बत हो गयी थी, बे- इंतेहा
हो गयी थी।
उसने तक़दीर के आगे, आख़िर सर
झुका ही दिया था अपना।
मोहब्बत के एहसास ने भुला दिया था,
उसे, उसका ख़्वाबों का शहर।