रमेशराज के 12 प्रेमगीत
खेत गुलाबों के—1
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फिर चाहे जीवन-भर मिलते किस्से घावों के
एक उम्र तो जी लेते हम बिना तनावों के।
मैने चाहा था वसंत का मीठा-सा सपना,
जिस पर मैं न्यौछावर करता तन मन धन अपना
तुमने बोये बीज मीत केवल अलगावों के।
तुमको जो दे पीड़ा मैं वह बात नहीं करता
और तुम्हारे कारण यह मन ताप नहीं सहता
यदि करते सम्मान एक-दूजे के भावों का।
कभी खूबसूरत भूलें भी विष बन जाती हैं
रिश्तों पर काली छाया बन नित गहराती हैं
मुरझा जाते हैं ऐसे में खेत गुलाबों के।
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-रमेशराज
तुम मधुकोश बनो—2
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मुझमें दोष दिखायी दें पर तुम निर्दोष बनो
हद है यह दोषरोपण की मत बदहोश बनो।
यदि की मैंने भूल तुरत उसको स्वीकारा है
जब भी तोड़ी खामोशी तो तुम्हें पुकारा है
बात-बात पर मीत इस तरह मत खामोश बनो।
ठेस तुम्हें पहुंचाना मैंने बोलो कब सीखा
कभी अकारण नहीं हुआ है मेरा स्वर तीखा,
मुझमें है थोड़ी मिठास तो तुम मधुकोश बनो।
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-रमेशराज
तुम्हारी खातिर—3
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मीत अकारण तुमने बोये क्यों अलगाव घने
छोटी-छोटी बातें भी अब करतीं घाव घने।
तन से रहे समर्पित लेकिन मन से दूर रहे
अपनी-अपनी वजहों से हम-तुम मजबूर रहे
वर्ना कभी नहीं आ पाते यूं विखराव घने।
तुमको सच्चे मन से चाहा यह अपराध किया
मैंने रोज तुम्हारी खातिर हर इल्जाम लिया
बदले में अपमानों के पाये पथराव घने।
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-रमेशराज
मेरी बाहों में—3
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चुभते हैं अब शूल सरीखे दृश्य निगाहों में
दुश्मन बनकर खड़े हुए तुम मेरी राहों में।
तुमको दे देते हम अमृत विष खुद पी लेते
ऐसी भी शर्तों पर बेशकहम तुम जी लेते
अगर तुम्हारी बांहें होतीं मेरी बांहों में।
चाहे जो अपमानित करता तुम तो चुप रहते
झूठ बोलती होगा जग ये तुम तो सच कहते
इसीलिए दिल के स्पंदन केवल आहों में।
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-रमेशराज
कोकिल कंठी बोल—4
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कई हादसों भरा मर्सिया बनकर उभरा है
प्यार तुम्हारा आज संखिया बनकर उभरा है।
आत्मीयता के दावों में छल ही छल लगता
सोने-सा व्यवहार तुम्हारा अब पीतल लगता
कोकिल कंठी बोल तूतिया बनकर उभरा है।
किस्से स्वयं खत्म हो जाते बढ़े तनावों के
तुमने भी यदि खोजे होते मरहम घावों के,
अहम् तुम्हारा विष की पुड़िया बनकर उभरा है।
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-रमेशराज
मुस्कान लगी प्यारी—5
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बुरे दिनों में भी तेरी पहचान लगी प्यारी
फटी हुई धोती जैसी मुस्कान लगी प्यारी।
संघर्षों के दौरां तुझको देखा मुस्काते
साहस-भरी कथाएं हरदम अधरों पर लाते।
हंसने की आदत दुःख के दौरान लगी प्यारी,
फटी हुई धोती जैसी मुस्कान लगी प्यारी।
विस्मृत करते हुए सिनेमा कंगन काजर को
तुम ने श्रम से रोज संवारा फूट रहे घर को।
सम्बन्धों के इस सितार की तान लगी प्यारी,
फटी हुई धोती जैसा मुस्कान लगी प्यारी।।
उधड़े हुए ब्लाउजों जैसी बातों में हम-तुम
कई समस्याओं में खोये रातों में हम-तुम
साथ-साथ जीने की हमको आन लगी प्यारी,
फटी हुई धोती जैसी मुस्कान लगी प्यारी।
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-रमेशराज
सिर्फ रोटियां याद रहीं—6
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मुस्कानों से भरा हुआ अभिवादन भूल गये
सिर्फ रोटियां याद रहीं हम चुम्बन भूल गये।
दायित्वों से लदा हुआ घर ऐसी गाड़ी है,
जिसमें पहियों जैसी अपनी हिस्सेदारी है
संघर्षों में रति का हर सम्वेदन भूल गये
सिर्फ रोटियां याद रहीं हम चुम्बन भूल गये।
याद हमें अब तो आटा तरकारी का लाना,
बिजली के बिल भरना तड़के दफ्तर को जाना।
कैसे आया और गया कब सावन भूल गये
सिर्फ रोटियां याद रहीं हम चुम्बन भूल गये।
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-रमेशराज
‘प्रेम’ शब्द का अर्थ
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कभी सियासत कभी हुकूमत और कभी व्यापार हुआ
तुमसे मिलकर ‘प्रेम’ शब्द का अर्थ रोज तलवार हुआ।
कभी आस्था कभी भावना कभी जिन्दगी कत्ल हुई
जहां विशेषण सूरज-से थे वहां रोशनी कत्ल हुई
यही हदिसा-यही हादिसा जाने कितनी बार हुआ।
तुमसे मिलकर ‘प्रेम’ शब्द का अर्थ रोज तलवार हुआ।
होते हुए असहमत पल-पल नित सहमति के दंशों की
अब भी यादें ताजा हैं इस मन पर रति के दंशों की
नागिन जैसी संज्ञाओं से अनचाहा अभिसार हुआ
तुम से मिलकर ‘प्रेम’ शब्द का अर्थ रोज तलवार हुआ।
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-रमेशराज
अब प्यास नहीं बुझती—8
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मन गायेगा गीत मोर के-कोयल के स्वर में
पेश जब कभी तुम आओगे बादल के स्वर में।
उस डाली पर पाओगे तुम फूलों-सा मुझको
जिस डाली पर देखूंगा मैं कोंपल-सा तुमको।
जाने क्या हो गया मुझे अब प्यास नहीं बुझती
तुम जबसे जीवन में आये हो जल के स्वर में।
इसी अदा पर तो है अपना तन-मन न्यौछावर
आंज लिया आंसू को तुमने काजल-सा अक्सर
हम घर के दरवाजे बनकर अब बेहद खुश हैं
प्यार मिला देता है हमको सांकल के स्वर में।
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-रमेशराज
आज नहीं तो कल यह होगा—9
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तुम्हें थमा अमृत का प्याला, पी हम रोज गरल लेंगे
थोड़ा-सा बदला है खुद को, थोड़ा और बदल लेंगे।
तुम मुस्काओ, नित सुख पाओ करते यही कामना हम
प्रीति-डोर से बंधे हुए हैं रखते नेक भावना हम
तुम फल पाओ मीठे-मीठे, हम सब कड़वे फल लेंगे।
थोड़ा-सा बदला है खुद को, थोड़ा और बदल लेंगे।
भले कहो मुझको पागल, पर रखता मैं उम्मीद यही
आज नहीं तो कल होना सब मन के माफिक सही-सही
नाम हमारा आप प्यार से आज नहीं तो कल लेंगे।
थोड़ा-सा बदला है खुद को, थोड़ा और बदल लेंगे।
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-रमेशराज
इस दिल में तुम रहती थीं—10
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प्यार-प्यार में प्यार हमारा जख्मों से तर कर डाला
हंसती-मुस्काती आंखों को फिर मेघों से भर डाला।
यह दिल अपना सिर्फ तुम्हारा इस दिल में तुम रहती थीं
यूं ही मिला करो तुम प्रियतम दिल की धड़कन कहती थीं
आर-पार दिल के ही तुमने झट-से खंजर कर डाला।।
हम समझे थे सनम तुम्हारी बदल गयी छलिया आदत
इतनी पीड़ा फिर दे डाली प्राण हुए अपने जड़वत्
कस्तूरी रागों में तुमने फिर तेजाबी स्वर डाला।।
जिसमें मेरे नन्हे मुन्ने सपनों की किलकारी थी
मन का आंगन गन्ध-भरा था महंक रही फुलवारी थी
तुमने उस वसंत के घर में शक-संशय का डर डाला।
यह मदमाती छल-फरेब की दुनिया तुम्हें मुबारक हो
जिसके भीतर बसी शान्ति में कटु विस्फोट यकायक हो
उस दुनिया ने अपने ऊपर दुःख से भरा असर डाला।
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-रमेशराज
मुस्कानों के बीच विहंस कर—11
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एक अजनबीपन ढोया है हमने अक्सर रातों को
बुझा-बुझा-सा मन ढोया है हमने अक्सर रातों को।
मुर्दा रिश्ते को सीने से लगा-लगा कर हम रोये,
इसी तरह दस्तूर प्यार का निभा-निभा कर हम रोये।
दुःख का आलिंगन ढोया है हमने अक्सर रातों में।।
ख्वाब सुनहरे तुमने प्रियतम निश्चित है देखे होंगे,
मुस्कानों के बीच विहंस कर अधर सदा खोले होंगे।
पर केवल क्रन्दन ढोया है हमने अक्सर रातों को।।
जिसने बस दुर्गति कर डाली प्यार भरे हर आशय की,
जिसने बस दुगन्ध बिखेरी मन के भीतर संशय की।
ऐसा रति-चन्दन ढोया है हमने अक्सर रातों को।।
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-रमेशराज
अंग-अंग ऋतुराज—12
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मधुकोष तुम्हारे अधर ,
नयन सोनमछरी
तुम्हारी भौहें इन्द्रधनुष
पलकें रस-गगरी।
सांसों में चन्दन की खुशबू,
तन से केसर महंके,
यौवन जैसे तेज धूप में
गुलमोहर दहके।
अलक तुम्हारी श्यामल सारंग, रूप-मणी प्रहरी।
बांहें जैसे रजनीगंधा,
अंग-अंग ऋतुराज,
चितवन जैसे महाकाव्य,
लघुकविताएं लाज।
शब्द तुम्हारे वेद-मंत्र, अरु मुस्कानें मिसरी।
रूप तुम्हारा मधुआसव-सा,
मन जैसे गंगाजल
हृदय तुम्हारा कल्पवृक्ष,
तन हुईमुई कोमल
कर जाती सम्मोहन हम पर वाणी ज्यों बंसुरी।
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-रमेशराज
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001