रमेशराज के नवगीत
वैरागीपन पास बुलाये—1
—————————————-
अभिमन्यु की तरह लड़ा मैं
प्रश्नों के हर चक्रव्यूह से,
पहिया थाम हुए हाथ में टूटे विश्वासों के रथ का।
आसमान छूने निकले
यूं अंधे मरियल बौने सपने,
बनना चाहे तारकोल ज्यों श्वेत नाक पर मोती नथ का।।
हंसते ही चेहरे पर अक्सर
नागफनी-सी उग आती है,
उसके भीतर मुस्कानों की
चंचल तितली फंस जाती है।
आशा उड़ती आक-फूल-सी
पुरबा के हर झौके के संग,
रातों बीच कसक उठता है चुभा काच अन्जाने पथ का।।
करते कभी प्यार की बातें
फुर्सत कहां रही पल-भर की,
रति जैसे खामोश नर्स है
एक ऑपरेशन थियेटर की।
मन के भीतर भोग जगे तो
वैरागीपन पास बुलाये
अंधियारों में जब भी पहुंचे स्मरण हो आया सूरज का।
———————-
-रमेशराज
परिचय की सौंधी गरमाई—2
—————————————-
अन्जानी पीड़ा में अब तो
मन का पोर-पोर जलता है,
गहरी होती ही जाती है धीरे-धीरे संशय-खाई।
चिंगारी देकर बुझ जाती
बार-बार प्राणों की तीली,
लगता जैसे बनी ज़िन्दगी सीली-सीली दियासलाई।
अन्तर को नित छील रहे हैं
अनसुलझे प्रश्नों के पंजे,
लगता जैसे कसे हुए है
कनपटियों को कई शिकंजे।
पीड़ा के अम्लों में गलती
गिरते ही सम्बोधन-कौड़ी,
रात वक्ष पर यूं पुर जाती झीलों को ज्यों ढकती काई।।
ऑलपिनों-सी चुभतीं हैं अब
अन्तर में आवाजें सारी,
मन में एक पेंच-सा कसती
चुपके-चुपके हर लाचारी।
सोते रहे रात-भर हम-तुम
सूरज यादों का बिसराये,
कैसे आती फिर सांसों तक परिचय की सौंधी गरमाई।
———————–
-रमेशराज
तिलचट्टों से भरी हुई है—3
——————————————-
खुशियों की पलकों पर मैंने
बार-बार मधुचुम्बन बोये
आंख किन्तु विधवा दुल्हन-सी अपने ही शृंगार पै रोयी।
तुम जो होते इस कुटिया में
मन यूं बेतरतीब न होता
तिलचट्टों से भरी हुई है बिना तुम्हारे प्राण-रसोई।
रातों को रखते हम अक्सर
ढांढस की कोकीन के फोअे,
तब जाकर मन के ये संशय
नयन मूंद बच्चे से सोये।
रिस-रिस जाता अवचेतन से
तन में अमरित मृदुल क्षणों का,
प्राणों बीच फूट जाती हैं सुधियाँ जैसे पकी मकोई।
हर परिचय यादों के भीतर
कैंचुल छोड़ निकल जाता है,
शाम हुए अवसाद हृदय में
नागफनी-सा बन जाता है।
पल-पल लिपट रहीं पांवों से
अमरबेल की भांति थकानें
कुतर रहा है समय कीट-सम बची-कुची प्राणों की छोई।
—————–
-रमेशराज
फूल दर्द का—4
——————————
सम्बन्धों के शब्दकोष में
प्यार का अर्थ नहीं मिला,
हर परिचय लगता अब जैसे खूनी एक किला।
संशय चला गया अधरों पर
गर्म रेत रखकर,
दुःख मुस्काता मन के भीतर
खुशियों को ठगकर।
आकर सीने पर अतीत अब रखता एक सिला।।
टूटी मालाएं जोड़ी नित
चुटकी-भर सुख की,
पायी हैं केवल गाथाएं
जीवन में दुख की।
फूल दर्द का मन की बगिया हर दिन नया खिला।।
यूं तो रोज रचाई हमने
महेंदी अनुभव की,
चुभती रही मगर अन्तर में
एक ऑलपिन-सी।
पाती भेजे हुए महीनों उत्तर नहीं मिला।।
———————–
-रमेशराज
आंसू-धूप चढ़ी—5
——————————–
दुःख का सूरज मार गया
किरणों की सोन-छड़ी,
नयन अटारी आंसू-धूप चढ़ी।
आज न आयी खुशी-छांव
दुःखती रग सहलाने,
आज न आया कोई बादल
सुख की ग़ज़ल सुनाने।
पोत गया संशय मन पर दर्दों की सेलखड़ी।।
आज वेदना-बीच लगे कुछ
सदियों जैसे पल,
जीने का विश्वास हमारा
लिया समय ने छल।
सुई रुकी, बस टिक-टिक करती देखी प्राण-घड़ी।
———————
-रमेशराज
जीवन का बटुवा—6
———————————
रही हमेशा खुशी बांझ-सी
और श्वांस विधवा
ऑलपिनों से भरा हुआ है जीवन का बटुवा।
हृदय-सीप के बीच चमकता
संशय का मोती
नयन-पिया के साथ आजकल
नींद नहीं सोती।
प्राणों का तन रही जलाती
पीड़ा की पुरवा।
रिश्तों के घर घोर असहमति
के हैं शोर मिले
भूकम्पों के महानगर में
जर्जर भवन हिले,
भरीं हुआ है अर्न्तमन में
एक घुटन-बलवा।
———————–
-रमेशराज
ऑलपिनों के हार—7
———————————-
हृदय-कक्ष से नहीं निकलता
दर्द किरायेदार,
जीवन-मालिक लाखों लालच देने को तैयार।
सांस बांझ-सी देख न पायी
पुत्र हर्ष का मुखड़ा,
सास-बहू-सा होता है नित
रात-प्यास में झगड़ा।
पड़ी हुई खुशियों की छत में गहरी एक दरार।।
आदर्शों के घर में पीता
दारू आज पतन,
शील-भंग करने आतुर
सारे नेक चलन।
नयी सभ्यता पहन रही है ऑलपिनों के हार।।
————–
-रमेशराज
प्यार-भरे सम्बोधन—8
———————————
बात कुछ यूं चुभी
रो उठे नयन-विहग
प्यासे दम तोड़ गये
कितने ही स्वप्न-मृग
व्यास बनी आंसुओं की अर्थव्यास सीमाएं।
अधरों पर सिसक उठा
अनमना अनुमोदन
अणुओं-से टूट गये
प्यार-भरे सम्बोधन।
बिन्दु बन बिखर गयीं नेहिल रेखाएं।
दर्द कुद घटा गयी
आते-आते पुरवाई,
दर्द कुछ बढ़ा गयी
जाते-जाते पुरवाई।
एक ही दर्द पर
मौसम ने लिख डालीं अलग-अनग समीक्षाएं |
———————-
+रमेशराज
अंग-अंग ऋतुराज—9
………………………………….
मधुकोष तुम्हारे अधर,
नयन सोनमछरी
तुम्हारी भौंहें इन्द्रधनुष, पलकें रस-गगरी।
सांसों में चन्दन की खुशबू
तन से केसर महंके,
यौवन जैसे तेज धूप में
गुलमोहर दहके।
अलक तुम्हारी श्यामल सारंग रूप-मणी प्रहरी।।
बांहें जेसे रजनीगंधा
अंग-अग ऋतुराज,
चितवन जैसे महाकाव्य,
लघुकविताएं लाज।
शब्द तुम्हारे वेदमंत्र अरु मुस्कानें मिसरी।|
रूप तुम्हारा मधुआसव-सा,
मन जैसे गंगाजल
हृदय तुम्हारा कल्पवृक्ष,
तन छुईमुई कोमल
कर जाती सम्मोहन हम पर वाणी ज्यों बंसुरी।|
———————
+रमेशराज
——————————————————————–
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001