रमुआ के घर में
रमुआ के घर में
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पहुँच चुकी है अंर्तमन तक
तथ्यों की इक टोली,
आज चित्त में भावों का हड़ताल हुआ है।
भूसी नहीं निलय में
खाने के भी लाले,
बेच भवन पुश्तैनी
मेंटेनिंग दुनाले;
रमुआ के घर में आख़िर अब
टूटे बरतन, खोली,
चौराहों पर बहकी-बहकी चाल चला है।
दोषी हैं बस नेता
दिनभर करे मसख़री,
अंबुज के अधरों पर
जैसे कोई पहरी;
हाथ-पैर में ताला डाले
मुँह में दही जमाये,
चारदीवारी पर छज्जे का हाल बुरा है।
औरत को ना माने
ढाबा रोटी, सोंधी
जाग बजे बारह तक
उठे बहुरिया कौंधी;
रातों में नींदों के आते
भला-बुरा सब बोले,
मच्छरों के राज में वह सरताज भला है।
…“निश्छल”