योग
मेरे आज्ञाचक्र में
निरन्तर घूमने वाली
स्मृति में तुम हो।
मेरे हाथों की लकीर में,
मेरी तक़दीर में,
मेरी नियति में तुम हो।
मेरे ज्ञान में,
मेरे ध्यान में,
मेरे अवचेतन मन की
जागृति में तुम हो।
हाँ, तुम ही तो हो,
मेरा योग !
जिससे खुलते हैं,
मेरे आज्ञाचक्र के द्वार
जो दिखाते हैं,
संसार के उस पार,
ले जाते हैं,
प्रकाश पुंज की उस दुनिया में,
जहाँ शरीर हो जाता है शिथिल,
मन हो जाता है शान्त,
क्योंकि तुम ही तो हो,
मेरा योग !
जिसके इर्द-गिर्द घूमता है,
मेरा प्रेम !
निश्छल, निस्वार्थ,
आध्यात्मिक प्रेम !
जो सदैव तुम्हें रखता है हृदय में,
देवतुल्य, पूज्यनीय,
मेरे आराध्य की भांति,
क्योंकि तुम ही तो हो,
मेरा सम्पूर्ण ब्रह्मांड…
जो अद्भुत है,
अलौकिक है,
परन्तु सत्य है,
मेरे शिव की भाँति…
हाँ, तुम ही तो हो,
मेरा कर्म योग !
मेरा ध्यान योग !
मेरा प्रेम योग !
@स्वरचित व मौलिक
शालिनी राय ‘डिम्पल’✍️