जर्रा – जर्रा
त्याग दिया मन की हर भाषा
आशा से तौबा कर डाला
मन से मन की कभी बनी न
हालातों से समझौता कर डाला
लगता है के अबतो, मैं खुदसे ही रूठ गया हूँ
वक्त के हाथों जर्रा -जर्रा,लम्हा- लम्हा टूट गया हूँ
वादे पर वादों का मिलना
जज्बातों का खेल निराला
सुर्ख सुफेदी बस ज़ुबान में
अंतस का रंग काला -काला
हाल कभी भी जिसने पूछा,बोल अनेकों झूठ गया हूं
लगता है के अबतो,मैं खुदसे ही रूठ गया हूँ
वक्त के हाथों जर्रा -जर्रा, लम्हा- लम्हा टूट गया हूँ
मन ने मन की एक सुनी ना
बस अपनी वाली करता है
एक बार भी तनिक न सोचा
आखिर कैसी निष्ठुरता है
निराशा का अनन्त हलाहल,पी तो वैसे कई घूँट गया हूँ
लगता है के अबतो,मैं खुदसे ही रूठ गया हूँ
वक्त के हाथों जर्रा -जर्रा, लम्हा- लम्हा टूट गया हूँ
इन सबके बाद भी आश न छोड़ा
जैसे – तैसे आगे बढ़ता हूँ
गिरता हूँ, फिर उठता हूँ
अजीब सी सीढ़ी चढ़ता हूँ
हताशा में नायाब खजाने को,इक झटके में लूट गया हूँ
लगता है के अबतो,मैं खुदसे ही रूठ गया हूँ
वक्त के हाथों जर्रा -जर्रा, लम्हा- लम्हा टूट गया हूँ
-सिद्धार्थ गोरखपुरी