युद्ध कविता
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मुझे हमेशा संवेदना होती है,
सीमाओं पर युद्ध में मरने वाले सैनिकों से।
पर नहीं होती, हिंसा के उन्माद में
एक दूसरे को मारते व्यक्तियों से।
कट्टरता और जड़ता को पालने वाला समय से पहले मारा जाए आवश्यक है।
मैं गलत हो सकती हूं।
निष्ठुर भी।
पर ऐसा ही सोचती हूं।
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वो सिर काट रहें हैं, हम सिर्फ बाज़ूऐ।
हमें महानता का प्रमाणपत्र चाहिए।
नहीं! हमें मिलना चाहिए,
हमने सिर्फ अंगुलियां काटी हैं।
नहीं! हमें दो।
बलात्कार में किसी का कोई अंग नहीं कटता।
इसलिए हम हैं सबसे महान।
सब असुरक्षित हैं, सब सिर काटेंगे।
सबसे कम सिर काटने वाले हार जायेंगे,
और सबसे अधिक सिर काटने वाले जीतेंगे।
अभ्यास शुरू हो चुका है।
अब, धर्म/मज़हब हिंसा का पर्याय है।
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यहां धावा बोल गया था,
दूसरे जाति, धर्म, रंग, समुदाय वालों को
खत्म करने के लिए।
कुछ धार्मिक प्रतीक चकनाचूर हो चुके हैं,
कुछ मढ़े जा रहे हैं कंगूरों पर।
घनघोर युद्ध, नरसंहार के बाद
यहां सिर्फ लाशें हैं।
और मन, बदन से खून टपकाती,
अपहृत, अनाथ, बेबस योनियाँ।
स्त्रियाँ दुखी हैं।
क्योंकि, विधवा हो गईं।
किसी का परिवार अपाहिज हो गया।
क्योंकि किसी के पति को पुरस्कार में मिली हैं
दुश्मनों की जवान स्त्रियाँ।
कुछ बचे खुचे, बच्चे, बच्चियां अभी भी जिंदा रखे गए हैं,
सेना में भर्ती या जवान होने की प्रतीक्षा में शायद!
विजेता नए कब्ज़ियाए घरों की छत पर चढ़कर देखे रहें हैं –
कर्फ्यू में घूमते, बिना सिर के पैर
बिना धड़ के हाथ
हर तरफ पड़ें हैं कटे शरीरों के ढेर के ढेर
और, बह रहा है बलबलाकर लाल, गाढ़ा खून।
और अब तुम फहराओगे खून से धोकर अपना झंडा।
खुश मत हो, वो झंडा तुम्हारा नहीं है
जीतने वाले तुम नहीं हो
तुम तो हारे हो
जिन्हें रौंदा जा रहा है, वो तुम्हारी ही स्त्रियां हैं
आँखें बची हों तो देखो
देख लो।
तुम्हीं हारे हो।
हमेशा हारोगे।
© शिवा अवस्थी