यह ज़िंदगी गुज़र गई
कुछ कभी इधर गई तो कुछ कभी उधर गयी
इधर-उधर के फ़ेर में ये ज़िंदगी गुज़र गयी।
चढ़ी थी एक दिन जो आरज़ू के हर उफ़ान पर
सजे थे ख़्वाब आस्मां के भी परे उड़ान पर
न देख पाई दौलतें छिपी थीं दिल में प्यार की
नज़र जमीं थी बस हरिक के जिस्म के मकान पर
यकबयक ये क्या हुआ
लगी ये किसकी बद्दुआ
इधर जो थी अभी तलक
वो रुख़ बदल गयी हवा
जो खेलती फ़लक पे वो तली में थी बिखर गई
इधरउधर के फेर में ये ज़िंदगी गुज़र गयी।
न जाने कितनी ख़्वाहिशें, न जाने कैसी चाहतें
हथेलियों में उग रहीं थीं नित नयी इबारतें
था जश्ने महफ़िलों का शोर और कहकहों का ज़ोर
सुन रहे थे कान भी बड़ो की कब हिदायतें।
न मंज़िलें थीं तय कोई
न रास्तों का था पता
पाँव एक था इधर, तो
दूजा उस डगर पे था
रहा न होश ख़ुद को ही नज़र किधर किधर गयी।
इधरउधर के फेर में ये ज़िंदगी गुज़र गयी।
सिमट के हम न रह सके समूचे इक वजूद में
असल को भूल कर उछल रहे फ़कत थे सूद में
समझ रहे थे ख़ुद को जो समुद्र सा विशाल वो
चिटख गये घड़े से बह रहे हैं बूंद बूंद में
ढल रही है रात या
नयी सहर है उग रही
छोड़ कर मकान रूह
घर नया बदल रही
ख़बर नहीं बिगड़ गई है या कि फिर संवर गयी
इधरउधर के फेर में ये ज़िंदगी गुज़र गयी।
मंजू सक्सेना
लखनऊ