यहाँ कोई नहीं अपना
किसी से क्या गिला यारो,
यहाँ कोई नहीं अपना ।
अग़र कोई तो बस इक है,
मेरा रूठा हुआ सपना ।
निगाहों में बसाया था,
बड़ा सुंदर सज़ाया था ।
किसी की माँग के सिंदूर,
सा रिश्ता निभाया था ।
मगर टूटी मेरी निंदिया,
लगा ठोकर जगाया था ।
मुबारक तुमको बेशक़ है,
सज़ा-सँवरा तेरा सपना ।
अगर कोई तो बस इक है,
मेरा रूठा हुआ सपना ।
बड़ी रंगीन महफ़िल है,
यहाँ बिकता हरिक दिल है ।
बदलते लोग नित देखो,
मगर हमको तो मुश्किल है ।
दिलों में प्यार क्या मालूम,
नज़र पर सबकी क़ातिल है ।
नशीली रात को हक़ है,
जो देखे चाहकर सपना ।
अगर कोई तो बस इक है,
मेरा रूठा हुआ सपना ।
दीपक चौबे ‘अंजान’