‘यशपाल’ क्रन्तिकारी बुलेट से साहित्यिक बुलेटिन तक
यशपाल मुझे इसलिए पसंद हैं क्योंकि वह एक क्रन्तिकारी भी रहे, जिस पथ पर मृत्यु से कब, कहाँ, कैसे साक्षात्कार हो जाये! कोई नहीं जानता! ….. और तत्पश्चात महान साहित्यिक मनीषी भी, जो ताउम्र शब्दों की तपस्या करता रहा! बिना थके, बिना रुके, जाने किस दैवीय प्रेरणा से। स्वयं उन्हीं के जादुई शब्दों में:—”वैयक्तिक रूप से मैंने इस प्रयोजन के लिए जहाँ बुलेट को अनिवार्य समझा था, परिवर्तित परिस्थितियों में उस संघर्ष को बुलेटिन द्वारा जारी रखने का यत्न करूँगा।”
उपरोक्त कथन स्वयं यशपाल ने कहा था। संदर्भ था—मार्च 1938 ईस्वी में जेल से छूटने पर तत्कालीन ‘नेशनल हैराल्ड’ के युवा संवाददाता के एक प्रश्न के उत्तर का। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उपरोक्त कथन में ‘प्रयोजन’ शब्द से अभिप्राय: देश की स्वतंत्रता व समग्र परिवर्तन के लिए प्रयत्न से है।
यशपाल के साठवें जन्मदिवस के अवसर पर इलाहबाद में 5 दिसंबर 1963 ईस्वी को एक भव्य समारोह आयोजित किया गया था। जिसमें ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित स्वर्गीय महादेवी वर्मा ने अपने भाषण में आदरणीय यशपाल जी के संदर्भ में कहा, “जब अन्य साहित्यकार माँ शारदे के मन्दिर में आराधना कर रहे थे; क्रन्तिकारी यशपाल किसी तहखाने में बैठे बम (बुलेट) बना रहे थे। और जब सबसे अंत में वह (साहित्यकार यशपाल [‘विप्लव’ मासिक पत्रिका 1938 ईस्वी अर्थात—बुलेटिन]) सरस्वती के मन्दिर में आये तब माँ शारदे ने सबसे अधिक ध्यान उन्हीं की ओर दिया।” इससे बड़ा सम्मान किसी साहित्यकार का उसके जीते जी नहीं हो सकता कि उसके समकालीन साहित्यकार उसके विषय में कितना महत्वपूर्ण व्यक्तव्य देते हैं। मानो हिंदी की एक महान कवियत्री ने जीते जी यशपाल जी के प्रति अपनी श्रद्धा के सच्चे फूल चढ़ा दिए हों।
यशपाल कितने बड़े लेखक थे, ये बात उनके प्रति बड़ी साफ़गोई से, प्रख्यात साहित्यकार भीष्म साहनी ने वर्षों पहले एक लेख ‘नए संसार के अग्रदूत’ में कही थी, “यशपाल उस पौध के लेखक थे, जिसमे एक ओर लेखक सामाजिक क्षेत्र में होने वाले जन-संघर्ष से जुड़ता है, दूसरी ओर उसी से उत्प्रेरित होकर अपना साहित्य रचता है। पिछले पचास वर्ष के विश्व साहित्य की यही विशिष्ट प्रवृति रही है और उसने साहित्य को ऐसे जुझारू और महान लेखक जिनमें पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, लुई अरागान, फैज़ अहमद फैज़, महमूद दरवेश आदि विभूतियाँ आती हैं। ये लेखक आज के लेखक हैं, आज के विश्वव्यापी संघर्ष की उपज हैं, नए संसार के अग्रदूत हैं। यशपाल इन्हीं लेखकों की विशाल पांत में खड़े हैं। उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता इसी से स्पष्ट हो जाती है कि जितनी उन्होंने साहित्यिक रचनाएँ रची हैं, लगभग उतनी ही सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी रची होंगी। वह उस विराट अंतर्राष्ट्रीयतावाद के लेखक थे जो आज राष्ट्रीय हदबंदियों को तोड़कर उन नए मानव संबंधों को वाणी देता है, जो विश्व के किसी भाग में न्याय और मानव अधिकारों के लिए चलने वाले जन-संघर्षों से जुड़ता है उसका संबल बनता है।”
बात सत्तर के ज़माने की है। यशपाल अपने जीवन के अंतिम वर्षों में थे। लुगदी साहित्य में उन दिनों गुलशन नंदा की ‘तू-ती’ बोलती थी। ये उन दिनों की घटना है जब हिंदी के बड़े-बड़े नामचीन साहित्यकार जीवन यापन हेतु छद्म नामों से लुगदी साहित्य रच रहे थे। साठ-सत्तर के दशक में गुलशन नंदा के लगभग डेढ़ दर्जन से ऊपर उपन्यासों पर कई बेमिसाल और यादगार फ़िल्में भी बनीं। जिससे वे काफ़ी आमीर हो गए थे। गुलशन नंदा के उपन्यास उन दिनों हाथों-हाथ बिकते थे। बल्कि ‘झील के उस पार’ नामक उपन्यास ने तो रिकॉर्ड बिक्री की थी। किसी ने यशपाल से कहा था, “साहब, आप वर्षों से साहित्य के फील्ड में क्या कर रहे हैं? आप अपना स्टाइल बदलिए और गुलशन नंदा की तरह मैदान मारिये। हर घर में उनकी डिमांड है। आपने उनका कोई उपन्यास नहीं पढ़ा क्या?”
“हाँ, इस बीच मैंने उनके कुछ उपन्यास देखे थे, मगर मुझे तो कुछ ख़ास बात नज़र नहीं आई।” तब यशपाल जी मुस्कुरा भर दिए और उन्होंने इतना ही कहा था। यहाँ यशपाल जी के कहने का अभिप्राय: यह था कि जब तक आप किसीकी लेखन शैली से प्रभावित न हो, तब तक उसे कॉपी करना तो दूर, पढ़ना भी दूभर है। जिन्हें दोयम साहित्य पसंद है, वह शौक़ से पढ़े! जो महारथी इसे रचते हैं, रचते रहे! उन्हें कौन मना करता है? लोकतंत्र है, कोई क्या कर सकता है? या कोई क्या कह सकता है? वक़्त ही इस बात का गवाह है और जवाब दे सकता है। आज सत्तर के दशक को गुजरे लगभग 40–45 बरस हो चुके हैं। आज यशपाल जी को गुज़रे 41 वर्ष और गुलशन नंदा को गुज़रे 32 वर्ष हो चुके हैं। पाठक सहज ही समझ सकते हैं कि यशपाल के साहित्य की प्रासंगिकता ज्यों की त्यूँ बनी हुई है। उन पर आलेख और विशेषांक भी छप रहे हैं। यहाँ कहने का अभिप्राय: यह कि जो रचनाएँ काल के कपाल पर अपनी छाप नहीं छोड़ पातीं; वह कालांतर में जाकर स्वयमेव नष्ट हो जाती हैं। भले ही अपने दौर में उन्होंने कितनी भी ख्याति अर्जित की हो; या कितनी ही प्रतिष्ठा पाई हो?
3 दिसम्बर, सन 1903 ईस्वी को पंजाब में, फ़िरोज़पुर छावनी में एक साधारण खत्री दम्पति हीरालाल व प्रेमदेवी के परिवार में जिस यशस्वी बच्चे का जन्म हुआ, उसका नाम यशपाल रखा गया। उनकी माताश्री वहां अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थी और पिताश्री एक कारोबारी व्यक्ति थे। उनका पैतृक गाँव ‘रंघाड़’ था। जहाँ उनके पूर्वज हमीरपुर (हिमांचल) से आकर बस गए थे। पिता का व्यवसाय कुछ खास न था। अतः उनकी माता प्रेमदेवी अपने दोनों बेटों—यशपाल और धर्मपाल को लेकर छावनी के आर्यसमाज मंदिर के एक स्कूल में पढ़ते-पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षा और पालन-पोषण के बारे में अत्यन्त सजग थीं। यशपाल को बालपन से ही ग़रीबी के प्रति तीखी घृणा; आर्य समाज व स्वतन्त्रता आंदोलन के प्रति उपजी जिज्ञासा और आकर्षण उनकी माँ प्रेमदेवी और परिवेश की मिली-जुली विरासत में मिली जो उनके साहित्य के लिए उपजाऊ खुराक बनी।
वर्ष 1936 हिन्दी साहित्य के इतिहास में दो घटनाओं के लिए याद किया जाता है। पहली घटना 7 अगस्त 1936 ईस्वी को बरेली जेल में ही प्रकाशवती से क्रन्तिकारी यशपाल जी का विवाह हुआ। दूसरी घटना 8 अक्टूबर 1936 की है, जब बीमारी के उपरांत उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का निधन हुआ।
जेल से छूटने के बाद नवम्बर 1938 ईस्वी में “विप्लव” पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ तो यशपाल साहित्य को समर्पित हो गए। उसी का परिणाम था कि उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘पिंजरे की उड़ान’ (1939) में आया। इसी वर्ष उन्होंने ‘विप्लव’ के उर्दू संस्करण ‘बाग़ी ‘ का प्रकाशन भी शुरू किया। इसके एक वर्ष उपरान्त ही उनका प्रथम निबन्ध संग्रह ‘न्याय का संघर्ष’ (1940) आया। सरकार विरोधी लेखन होने के कारण बीच-बीच में जेल आने-जाने का सिलसिला भी बदस्तूर चलता रहा लेकिन साहित्य के प्रति यशपाल जी का समर्पण, उत्साह और लगाव कभी कम नहीं हुआ; बल्कि अत्याचार के कारण भीतर की आग और प्रचण्ड होने लगी। अंग्रेज़ सरकार के विरोध के कारन 1941 ईस्वी में पत्रिका का नाम ‘विप्लव’ से बदलकर ‘विप्लवी ट्रेक्ट’ कर दिया गया। इसी वर्ष उनका पहला उपन्यास “दादा कामरेड” भी प्रकाशित हुआ। सन 1942 ईस्वी में जब पुनः गिरफ़्तारी हुई और अँगरेज़ सरकार के द्वारा भारी जमानत मांगने के कारण पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया; किन्तु अपने अल्पकाल मात्र चार-पाँच बरस में ही ‘विप्लव’ अपने समय का सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र बन गया था। इसने राजनैतिक पत्रकारिता की दशा और दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई। परिणाम स्वरुप अनेक शहरों और नगरों में मजदूर संगठन बनने लगे और उनमे ट्रेड यूनियन की भावनायें जागृत हुईं।
वरिष्ठ साहित्यकार मिथिलेश्वर जी ने ‘यशपाल जी की कथादृष्टि’ नामक लेख (जो कि हिंदी अकादमी के मासिक पत्र ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ में ‘यशपाल विशेषांक’ अक्टूबर-दिसंबर 2003 में प्रकाशित हुआ था) में नई पीढ़ी के रचनाकारों हेतु यशपाल जी का एक सुझाव दिया था। जो अत्यंत प्रेरणादायी और लाभकारी है। जो कहानियों के प्रति यश जी की कथादृष्टि की पूर्णता का सूचक है—”हिंदी कथा साहित्य के हित-चिंतक होने के नाते नई पीढ़ी के लेखकों को एक परामर्श देना चाहूँगा। अनुरोध है कि नई पीढ़ी के सक्षम लेखक अपनी सृजन शक्ति और प्रतिभा नवीनता और विशिष्टता की मान्यता प्राप्ति के आंदोलन में अपव्यय न करें। सशक्त रचनाएँ जादू की तरह सर चढ़ कर बोलती हैं और हाथ के कंगन की तरह उनकी श्रेष्ठता की मान्यता के लिए विज्ञापन और आन्दोलनों के दर्पणों की आवश्यकता नहीं होती।” अगर होती तो स्वयं यशपाल कभी महान कथाकार और महान उपन्यासकार न बन पाते। आन्दोलनों ने तो उनका तिरस्कार ही किया, स्वयं प्रगतिशील आंदोलन और उसके प्रमुख आलोचकों ने भी।’
अपने तीनों ऐतिहासिक उपन्यासों ‘दिव्या’ (1945); ‘अमिता’ (1956) और ‘अप्सरा का शाप’ (1965) में केन्द्रीय चरित्र नारियाँ हैं तो अन्य उपन्यासों ‘मनुष्य के रूप’ (1949) में सोमा व मनोरमा; ‘पार्टी कामरेड’ (1946) में गीता; ‘तेरी, मेरी उसकी बात’ (1974) में उषा और माया; ‘झूठा-सच’ (दो भागों में लिखा उपन्यास, 1958; 1960) में तारा और कनक मूल कथा नायिका हैं। बालपन में माता द्वारा डाले गए आर्य समाजी संस्कार, फिर तरुणा अवस्था में क्रन्तिकारी दल का कठोर अनुशासन। अतः स्त्री-प्रश्न पर वर्जनाओं का अनुपालन यशपाल ने लम्बे वक्त तक भोगा था। अतः साहित्य में जब उन्होंने वर्जना की ये दीवार तोड़ी तो यौन-स्वच्छंदता की एक अलग ही दुनिया उन्होंने पाठकों के सामने प्रस्तुत की। उन पर ये इल्ज़ाम हमेशा लगता रहा। एक काव्य गोष्ठी में किसी कवी ने उन पर दो पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं। जिन्हें उन्होंने अत्यंत धैर्यपूर्वक सुना:–
यशपाल बड़े इक लेखक हैं
हिंदी उनसे डरती है
मार्क्सवाद में सेक्स मिलाकर
गरम पकौड़ी बिकती है
यशपाल जी के साहित्य पर समय-समय पर विद्वानों द्वारा अनेक लेख लिखे जा चुके हैं। अतः अपने पाठकों के लिए मैं उनके द्वारा रचित साहित्यिक पुस्तकों की सूची दे रहा हूँ। यशपाल जी ने अपने प्रथम उपन्यास वर्ष 1941 ईस्वी से 1974 तक लेखन के प्रति अपने कठोर शासन के अंतर्गत ग्यारह उपन्यास लिखे, जो क्रमश: इस प्रकार हैं: ‘दादा कामरेड’ (1941); ‘देशद्रोही’ (1943); ‘दिव्या’ (1945); ‘पार्टी कामरेड’ (1946); ‘मनुष्य के रूप’ (1949); ‘अमिता’ (1956); ‘झूठा सच’ (पहला भाग: वतन और देश, 1958); ‘झूठा सच’ (दूसरा भाग: देश का भविष्य 1960); ‘बारह घण्टे’ (1963); ‘अप्सरा का शाप’ (1965); ‘क्यों फँसे!’ (1968); और ‘तेरी, मेरी उसकी बात’ (1974)… यशपाल जी ने 1939 ईस्वी से 1969 ईस्वी तक जो कथा संग्रह पाठकों को दिए, वो क्रमशः इस प्रकार हैं: ‘पिंजरे की उड़ान’ (1939); ‘वो दुनिया’ (1942); ‘ज्ञानदान’ (1943); ‘अभिशप्त’ (1944); ‘तर्क का तूफ़ान’ (1944); ‘भस्मावृत चिंगारी’ (1946); ‘फूलो का कुर्ता’ (1949); ‘धर्मयुद्ध’ (1950); ‘उत्तराधिकारी’ (1951); ‘चित्र का शीर्षक’ (1951); ‘तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ!’ (1954); ‘उत्तमी की माँ’ (1955); ‘ओ भैरवी’ (1958); ‘सच बोलने की भूल’ (1962); ‘खच्चर और आदमी’ (1965); ‘भूख के तीन दिन’ (1969); और एक कथा संग्रह उनकी मृत्यु के उपरान्त ‘लैम्प शेड’ (1979) में प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा उनकी कहानियों का समग्र संकलन ‘यशपाल की सम्पूर्ण कहानियाँ’ चार भागों में भी उपलब्ध हैं। ऐसा कहा जाता है कि यशपाल जी की प्रारम्भिक कहानियाँ जेल में ही लिखीं गईं। उनके प्रथम कथा संग्रह ‘पिंजड़े की उड़ान’ और ‘वो दुनिया’ में वे अधिकांश कहानियाँ शामिल हैं। इसके अलावा यशपाल जी ने समय-समय पर निबन्ध; व्यंग व लेख आदि लिखे थे।