यदि मैं इतिहास बदल सकती – 3 ” और बहेलिये ने तीर नही चलाया “
महाभारत खत्म है चुका था वक्त अपने मरहम लगाने में लगा था युधिस्ठिर हस्तीनापुर की गद्दी पर बैठ चुके थे महाभारत के भयावह युद्ध के उपरांत गंधारी ने श्री कृष्ण को श्राप दिया था की आज से छत्तीस साल बाद तुम भी अपने कुटुंब के साथ मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे यह सुन श्री कृष्ण विचलित हो उठे थे , हस्तीनापुर युधिस्ठिर को सौंप श्री कृष्ण अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने अपनी बसाई द्वारका की ओर प्रस्थान कर गये । द्वारका में अपनी आठ रानियों के साथ पति और प्रजा के साथ राजा का कर्तव्य निर्वाह करने लगे , रह – रह कर देवी गंधारी का श्राप उनको बेचैन कर देता क्योंकि उनको पता था महान पतिव्रता देवी गंधारी का श्राप कभी खाली नही जायेगा । कृष्ण को अपनी नही अपने लोगों की और अपने कुल की चिंता थी , कृष्ण का सारा ध्यान अपनी प्रजा पर रहता वो कोई कमी नही छोड़ना चाहते थे जिससे प्रजा हमेशा प्रसन्न रहे ।
युधिस्ठिर कृष्ण से मिलने समय – समय पर द्वारका आते रहते थे माता गंधारी का कृष्ण को दिया श्राप उनके भी परेशानी का सबब था , कुछ वर्षों उपरांत कृष्ण के पुत्र सांब का जन्म हुआ पुत्र के साथ साथ खुशमय जीवन कब तेजी से आगे बढ़ा पता ही नही चला सामने युवा सांब खड़ा था । एक दिन महर्षि विश्वामित्र , मुनि वशिष्ठ ,ऋषि दुर्वासा और देवश्री नारद द्वारका पधारे उनके समक्ष सांब के यादव मित्रों ने हास्य के उद्देश्य से सांब को साड़ी पहना कर स्त्री के रुप में यह कहते हुये पेश किया की यह एक गर्भवती स्त्री है कृपया बताइये की इसके गर्भ से क्या जन्म होगा ? इतना कहना था की अंतर्यामी महर्षि देवश्री ने अपना अपमान होता देख क्रोधित हो गये और श्राप दे दिया बोले ” इसके गर्भ से लोहे का मूसल उत्पन्न होगा और तुम लोगों के वंश का नाश करेगा परंतु कृष्ण और बलराम इससे वंचित रह जायेंगे । एक तरफ देवी गंधारी का श्राप तो दूसरी तरफ ऋषियों का ये कथन आपस में विरोधाभास थे , जब कृष्ण को श्रृषियों के श्राप का पता चला तो उनके मुख से निकला की उनका कहा सत्य ही होगा , पैतीस बरस शान्तिपुर्वक हर्षोल्लास के साथ व्यतीत हो गया छत्तीसवाँ साल शुरू हुआ एक दिन कृष्णवंशी यदुपर्व मनाने के लिए सोमनाथ के पास एकत्रित हुए वहां अत्यधिक मदिरा पान के चलते आपस में ही मार – काट करते हुये खतम हो गये जो वहाँ नही गये थे वो बच गये उनको कृष्ण ने उनको प्रभास क्षेत्र ( जहाँ सरस्वती नदी पश्चिम की ओर जा कर समुंद्र से मिलती है ) में जाने का आदेश दिया , छत्तीसवां वर्ष खत्म हो रहा था बलराम परमपद में लीन हो चुके थे ये देख श्री कृष्ण जंगल मे एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर चतुर्भुज रुप धारण कर लिया इस रुप को धारण करते ही चारो दिशाओं में रौशनी फैल गई , श्री कृष्ण अपने दाहिने जाँघ पर बायाँ चरण ( प्रभु के गुलाबी चरणों से लग रहा था जैसे अभी रक्त टपक जायेगा ) रख कर सर को दोनों हाथों का सहारा देते हुये लेट गये , इधर ऋषियों के श्राप के बाद कंस के पिता उग्रसेन ने सांब के गर्भ से उत्पन्न लोहे के मूसल को चूर – चूर कर समुंद्र में बहा दिया उस चूरे को मछली ने निगल लिया और मछुआरों ने उस मछली को पकड़ लिया उसके पेट से जो लोहे का टुकड़ा निकाला उसको जरा नाम के बहेलिये ने अपने तीर के नोक पर लगा लिया , होनी क्या न करवाती हैं परंतु एक तरफ होनी थी दो श्रापों के साथ दूसरी तरफ नारायण थे अपने कृष्ण अवतार में , अपने लोहे जड़े तीर को देख – देख बहेलिये की खुशी का ठिकाना न था उसको पूरा विश्वास था की आज कोई जानवर उसके शिकार से बच ना पायेगा , शिकार तलाशता हुआ जब जंगल के बीच में पहुँचा तो उसने देखा की पीपल के पेड़ के चारो तरफ खूब रौशनी फैली है और पेड़ के अगल – बगल फैली झाड़ियों के बीच हिरण के मुख के समान कुछ दिखाई दिया तुरंत वो तीर चलाने को उद्धत हुआ तभी उसके मस्तिष्क में ये विचार कौंधा कि इतनी रौशनी एक हिरण के कारण तो उत्पन्न नही हो सकती ज़रूर कोई और कारण है ये सोचते हुये बहेलिया पीपल के नीचे पहुँच गया और वहाँ देखता है की वहाँ तो श्री कृष्ण लेटे हैं वो वहीं श्री कृष्ण के चरणों में बैठ गया , आत्मग्लानि से भरा उनके चरणों को अपने आँसुओं से धो रहा था कि इस कृत्य से श्री कृष्ण की निंद्रा भंग हो गई वो उठ कर बैठे और बहेलिये से उसके रोने का कारण पूछा बहेलिये ने रोते – रोते सारी बात कह दी , उसकी बात सुन श्री कृष्ण बहुत जोर से हँसे और बोले ” एक श्राप को रोकने दूसरा श्राप पहले वाले श्राप के समुख खड़ा हो गया ” अपनी ही रची इस माया पर स्वयं ही हँस रहे थे और बहेलिया श्री कृष्ण के चरणों में बैठा इस बात से अनजान की प्रभु ने अपनी मृत्यु ना होने का माध्यम उसको बनाया वह तो बस उनको आवाक् , मंत्र मुग्ध अपलक देखा जा रहा था ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 20 – 04 -2019 )