यक्ष प्रश्न
युधिष्ठिर अपने भाइयों को ढूँढते ढूँढते थके हारे सरोवर किनारे आ पहुँचे । वे चारों जल की खोज में यहाँ आए थे । युधिष्ठिर ने देखा उनके भाई जो उनका एक मन , एक प्राण हैं, मृतक पड़े है। इस आघात को आत्मसात् करना उनके लिए किसी भी और कष्ट को सहन करने से कठिन था, फिर भी उनके कदम पहले उनके पास जाने की अपेक्षा , अनायास ही जल की ओर बढ़ गए।
जैसे ही युधिष्ठिर ने सरोवर में हाथ डाला, आवाज़ गूंज उठी,
“ ठहरो । मैं यक्ष हूँ । युगों से अपने प्रश्नों के उत्तर ढूँढ रहा हूँ । हर प्यासे को मेरा जल पीने से पहले उतर देने होते हैं , फिर उसे संतुष्टि का अधिकार मिलता है।”
“ कहिए । आपके इस प्रयत्न में मैं अवश्य अपना योगदान दूँगा ।” युधिष्ठिर ने सीधे खड़े होते हुए कहा ।
“ मेरा पहला प्रश्न। है, मनुष्य का पहला प्यार कौन है ? “
“ मनुष्य का पहला प्यार वह स्वयं है यक्ष ।”
“ मनुष्य का दूसरा प्यार क्या है? “
“ मनुष्य का दूसरा प्यार उसके जीवन मूल्य हैं ।”
“ मनुष्य की शक्ति का स्त्रोत क्या है? “
“ मनुष्य की शक्ति का स्त्रोत उसका आत्मविश्वास है ।
“ मनुष्य में सबसे सुंदर क्या है ?
“ उसकी करुणा “
“ मैं तुम्हारे उत्तरों पर मनन करूँगा, परन्तु अब तुम जल पी सकते हो । और मैं तुम्हारे एक भाई को जीवन दान देता हूँ , कहो किसे जीवन दान दूँ ?”
“ सबको यक्ष । समानता ही हमारे प्रेम का आधार है । किसी एक को चुनकर मैं जीवन की अवधारणा को त्याग नहीं सकता । “
यक्ष हंस दिये, “ ठीक है युधिष्ठिर, तुमने मनुष्य होने की गरिमा को इस संकट की घड़ी में भी बनाए रखा, इसलिए मैं तुमसे प्रसन्न हूँ , और तुम्हारे सभी भाइयों को जीवन दान देता हूँ । “
सभी भाई अचानक जाग गए , थके हारे जल पीने के बाद उन्होंने युधिष्ठिर से पूरी कथा सुनी ।
अर्जुन ने कहा, “ भईया , यदि परिवार में सभी समान हैं तो क्या कल जब आप फिर से राजा बनेंगे और आपकी प्रजा आपका परिवार होगी , तो क्या उसमें सब समान होंगे ? “
“ हाँ अर्जुन, राज्य को बनाए रखने में सबका योगदान आवश्यक है, इसलिए सभी समान हैं। इतना ही क्यों पशु पक्षी , पेड़ पौधे , इस वातावरण को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं, इसलिए उन्हें भी समानता का अधिकार है, इसलिए प्रकृति से मैं उतना ही लेना चाहता हूँ जितना मेरे जीवन यापन के लिए आवश्यक है।
कुछ रूक कर उन्होंने फिर कहा, “ यह मैं यहाँ वन में आकर समझा , हमारी कुटिया पर चढ़ आई बेल का यदि जीवन का अधिकार हमारे तुम्हारे जैसा है , तो वह हमारे समान है , कम या अधिक नहीं । प्रकृति के मूल में है , जिजीविषा, उसके केवल रूप भिन्न हैं ।”
सहदेव ने कहा, यदि हम ऐसा सोचें तो हमारे वनवास के दिन भी कितने सहज सरल हो जाते हैं ।”
यह सुनकर सबके चेहरे पर एक मुस्कराहट उभर आई, और उनके कदमों की गति अनायास ही बड़ गई ।
—-शशि महाजन
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