यंत्रवत् मानव
बच्चों की फंतासी कहानियों, कार्टून कैरेक्टर्स में,
देखा- सुना था,
रोबोट यंत्रों में जान आते।
किंतु अब समाज में जगह-जगह दिखाई दे रहे हैं …
हाड़- मांस के इंसानों को रोबोट बनते ।
यह हाई-फाई सैलरी देने वाली मल्टीनेशनल कंपनियां,
नोटों की गड्डियों से,
भर देती है मुंह,
और खरीद लेती हैं,
उनके जीवन का अनमोल समय। समय जो जीवन है,
समय जो जीवन है, अनमोल है, चला जाता है वह,
सिर्फ धन कमाने में।
वह भी-
एक मशीन के
परदे के आगे, बैठने में,
दिन- रात, रात- दिन ।
पेट की भूख के लिए कमाता इंसान,
इतना मजबूर नहीं।
पेट की भूख की तो,
सीमा होती है।
किंतु –
भौतिक सुविधाओं की,
भूख की सीमाहीनता,
गुलाम बना लेती है आदमी को।
अपने परिधिहीन उदर में,
समाहित कर लेती है,
मनुष्य की संपूर्ण सत्ता को, मनुष्यता को, संवेदनशीलता को, एहसासों को।
इंसान की
छोटी-छोटी खुशियां ……
उगता सूरज, चहचहाते पंछी,
बच्चे की मुस्कुराहट,
दोस्तों की गपशप,
सब छूट जाती है।
छूट जाता है,
अपनों के साथ मिलना-जुलना,
उठना-बैठना,
सुख- दुख में शामिल होना,
क्योंकि-
जो थोड़ा बहुत वक्त मिलता है,
वह चला जाता है,
टीवी के परदे के सामने।
सचमुच इंसान
कमजोर पड़ता जा रहा है।
मशीनें उस पर
अधिकार जमाती जा रही हैं। मशीनों का साथ ही अब….
इंसान की चाह,
इंसान का लक्ष्य,
इंसान की मजबूरी बन गई है।
सारी मनुष्यता,
मशीनों में ढल रही है,
मशीनों में ढल रही है।
इंदु पाराशर