मौन की भाषा गढूं या कण्ठ से उद्गार दूँ
उठ रहे जो भाव उर में सुर से मैं आकार दूँ
मौन की भाषा गढूं या कण्ठ से उद्गार दूँ
जी रहा हूँ जिंदगी मैं ,,,,, चेहरे पे चेहरा लिये
घुट रहा है दम मेरा ,,और मौत सेहरा है लिए
शुद्ध ब्रह्मन हूँ कहीं ,,,,और शूद्र जैसा हूँ कहीं
मैं वहीं संदोह हूँ क्या ,,,,,सोच होता ना यकीं
मैं स्वयं को दूँ बदल ,,,,या मैं स्वयं पे भार दूँ
मौन की भाषा गढूं ,,,,,या कण्ठ से उद्गार दूँ
लेखनी लिख पायेगी ,,,,क्या जो मेरे अंतःकरन
शब्द बन्धन तोड़ देंगें,,, मौन का क्या आचरन
गर लिखूँ अपवाद तो ,,,,अवसाद से होगा वरन
चित्त चिन्ता में फँसा क्या लिखूँ अगला चरन
वक़्त पे आशा रक्खूँ या उम्मीद अपनी मार दूँ
मौन की भाषा गढूं ,,,,,,,,या कण्ठ से उद्गार दूँ
रोज लिखते सत्य पे पर सत्य क्या बोला कभी
झूठ की तृष्ना मिटी ना,,, ठूँठ क्या डोला कभी
जड़ रहे चेतन समझते ,,,,,,,,चेत पाये ना कभी
चेतना चित की गयी ,,,,,जब रेत आये है सभी
फेंक दूँ यह आवरण या आचरण को धार दूँ
मौन की भाषा गढूं ,,,या कण्ठ से उद्गार दूँ
मसि कलम लेकर मैं बैठा,, और कागद ढेर भर
चल पड़ीं फिर लेखनी ,,और शब्द आये हेर कर
मैं गयी मन से मेरे ,,और आप ही बस आप थे
मिट गये मन से मेरे ,,उपजे जो उर संताप थे
कर स्वयं की खोज तू ,, तुझपे मैं जीवन वार दूँ
मौन की भाषा गढूं ,,,,,,,,,या कण्ठ से उद्गार दूँ
जिन्दगी आगोश में जब मौत को ललकार दूँ
ताप नाशक आप है सब,,,,,ताप को सन्हार दूँ
उर लसे सन्दोह हर तब मोह क्या अधिकार दूँ
मौन की भाषा में अब ,,मैं मौन को प्रतिकार दूँ
कर्म ही निज धर्म मानव तुझको जीवन सार दूँ
मौन की भाषा गढूं ,,,,,,,,या कण्ठ से उद्गार दूँ
चिदानन्द सन्दोह