“मौज-मस्ती ले उड़ा गुलाल”
होली के उपलक्ष्य लघुकथा –“मौज-मस्ती ले उड़ा गुलाल”
चारों तरफ सड़कों पर लड़कों की कई टोलियां ढोलक बजा गा रही ..”
मौज-मस्ती ले उड़ा गुलाल”.
उदास मीना आगे कुछ सुनने की ज़रूरत ही न समझी। उसने फागुन देख लिए थे। फागुन का रंगीला-रसभरा महीना उसके लिए कुछ भी रंगीला-रसभरा नहीं लाता था। बचपन से ही मां के साथ घर-घर झाड़ू-पोंछा-बर्तन करने वाली मीना ने देखा था, वार-त्योहार के कई दिनों बाद बहुत अहसान के साथ सूखे लड्डू और कीड़े लगे ड्राइ फ्रूट का मिलना। बाहर जाकर उनको देख-सूंघकर फेंकना उनकी नियति बन गया था। गुझिया तो उसने आज तक नहीं चखी थी। किसी पर होली का रंग डालने का लुत्फ़ कैसा होता है यह भी उसे नहीं मालूम था। अलबत्ता कई बार जबरन रंग से वह रंगी ज़रूर गई थी| अब तो वह नई बहू बनकर हिमेश के साथ नए शहर में आई थी। हिमेश तो फैक्टरी में काम करने चला जाता था, मीना ने सारा दिन अकेले घर में रहने कि बजाय कुछ काम करना बेहतर समझा था। सो एक घर के पास पार्ट-टाइम मेड का काम शुरु कर दिया, उसी में मगन थी। लगन से काम करती मीना को मालकिन भी दिलदार मिली थीं। उन्होंने उसे बहुत-से काम सलीके से करना और काम-चलाऊ अंग्रेज़ी बोलना सिखा दिया था। अब उसे खाने-पीने के लिए भी तरसना नहीं पड़ता था। कभी-कभी घर के लिए भी उसे सुबह का बना ताज़ा खाना मिल जाता था। होली से कुछ दिन पहले ही मालकिन ने उसे बहुत बड़ा सुंदर-सा पैकेट पकड़ा दिया था। “यह क्या है?” मीना के मुंह से अनायास ही निकल गया था| “अरे, नई-नवेली बहू है, होली नहीं मनाएगी क्या? यहां तेरी मां या सास तो है नहीं, सो मैं ही अपनी बहू-बेटी के लिए होली का सामान लेने गई थी, तेरे लिए भी ले आई। तेरे और हिमेश के लिए कपड़े हैं, रंग-गुलाल और मुँह मीठा करने को थोड़ी-सी गुझिया भी है। बाकी तो हम होली पर घर में ही ताज़ी बनाएंगे।” मीना भावाभिभूत होकर मुश्किल से ”थैंक्यू मालकिन” ही कह पाई। बाहर निकलकर वह उमंग से होली के दिन हिमेश के साथ होली खेलकर गाने वाला गीत गाती जा रही थी.
रेखा मोहन