मोबाइल
लघुकथा
शीर्षक – मोबाइल
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-“अरी बहू कुछ तो ख्याल कर समाज का, बिटिया के पैरों में जंजीर डाल, जंजीर, ,,, इत्ता उड़ना ठीक नहीं है, लड़की जात ,,,, उछल कूद करे फिरे…….”
-“क्या हुआ माँ जी, मैंने कब ख्याल नही किया समाज का ,,, चौका चूल्हा हमेशा से ही सम्हाल के रखा है… आप सभी ने यही तो बताया था कि मेरा समाज, यही है चौका- चूल्हा, रोटी- पानी …. से लेकर बिस्तर तक … उसमे मैंने कोई कसर तो नही छोड़ी…. और रही बात बिटिया की तो, उसे इत्ते छोटे समाज में बांध के नही रखना…. उसे जीने के लिए विस्तृत आकाश देना है… जहाँ वो अपने परो को फड़फडा कर मुक्त उड़ सके, सपने साकार कर सके…. ”
-” लेकिन बहू लड़की जात का तो ख्याल रखो.. मोबाइल और लेपटॉप पकड़ा दिए.. दिन भर उसी में सर खपाये रहती है… चौका-चूल्हा भी तो सीखना चाहिए… जिंदगी मोबाइल से तो न चले… ”
-” कैसे जिंदगी मोबाइल से न चले, माँ जी… जब आपको डेंगू हुआ था – तब बिटिया ने ही मोबाइल से पुराने नुस्खे खोजे थे, और आप ठीक भी हो हुई थी, और आपको जब ननद जी की याद आती है तब मोबाइल से ही तो आपको रूबरू कराती है वह … फिर मोबाइल कैसे न हुआ जिंदगी का अहम हिस्सा ….
– “ठीक है बहू , तू जीती, मै हारी… जीने दे बिटिया को सुनहरे पंखों के साथ ….. सीखने दे नयी तकनीक और चमकने दे समाज के आकाश में तारा सा ….. मै तो उसी की चमक से चमकती रहूंगी …..”
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