मै स्त्री कभी हारी नही
मैं स्त्री कभी हारी नहीं,
पर वक्त के साथ कितनी बार,
हारी हूँ, गिरी हूँ…………..,
फिर उठी हूँ ……………….।
वक्त हर बार कुछ खुशियाँ दे,
दगाबाजी दिखा देता है…..
मैं अपने हिस्से की खुशी पाने,
सौ बार मरती हूँ……………,
फिर जीकर उठती हूँ ।
क्यों वक्त मेरा इम्तिहान ले ,
मुझे अपनी कसौटी पर,
खरा उतारने के लिए …..
कितना मशक्कत करता है ।
मैं स्त्री खुद से कभी नहीं रूठी, भू
पर लोगों की बातों से रूठ जाती हूँ,
क्यों लोग बेमतलब की,
बातों से मुझे हर पल बिखराता है ।
मैं स्त्री भूल गई खुद को,
अपने पराये रिश्ते की किताब के ,
कुछ कोरे कागज़ पर ……………,
अपनेपन का रंग भरते हुए …..,
अपना वजूद खो मुस्कराती हूँ ।
गज़ब की धीरता है मुझमें,
लोग खेलते हैं मेरे दिल से…….,
प्यार के बोल दो शब्द मेरी……
भावनाओ का मजाक उड़ा…..,
मुझे एक पल में झटक देते है ।
मैं फिर भी करती हूँ इंतजार,
कभी प्यार के दो शब्द बोलने वाले का,
मुझे जिसने हर लम्हा रूलाया,
उस शख्स का जो मुझे,
खिलौनासमझ खेलता रहा।
कितनी अजीब है दुनियाँ,
अपना काम है तो वक्त है ,
पर जब स्त्री चाहती है,
कुछ वक़्त गुजारना उनके साथ,
मेरे पास वक्त नहीं है कह ,
हर बार स्त्री को ………….,
ऑसूओ में भीगा तन्हा कर देता है ।
दिल कहता है पागल है तू,
तेरे पास जो शब्द है ना …..,
…..विश्वास का……………..,
उसे अपनी जिंदगी से निकाल,
दरिया में फैंक कर आ जा।
तू स्त्री है ना सब पर………
विश्वास कर लेती हो…….,
जब संवेदनाएँ सहमने लगती है,
अकेले में कितना रो देती हो।
हाँ मैं स्त्री हूँ नादान हूँ………,
हो जाता है यह गुनाह……..,
क्योंकि मैं सरलमना हूँ,…..
करती हूँ कर बद्ध निवेदन,
हमारी भावनाओं के साथ,
खिलवाड़ कर हमे न करें आहत।।
डॉ राजमती पोखरना सुराना भीलवाड़ा राजस्थान