मैं ही समाज हूँ
रात के दस बजे होंगे ।वातावरण में हल्की ठंड थी। राघव के माथे पर पसीने की बूँदें छलक रही थी…वह कुछ परेशान सा था। एक्सीलेटर पर उसके पैर का दबाव बढ़ता ही जा रहा था-। राघव दलित जाति का शिक्षित युवक है। उम्र लगभग पैतीस वर्ष होगी…वह एक ट्रक ड्राइवर है। पिता जी बचपन में ही कैंसरग्रस्त होकर स्वर्ग सिधार गये थे। घर पर बूढी माँ और एक छोटी बहन थी। ब्याह के पाँच वर्ष बाद उसके घर में किलकारी गूंजी थी। उसकी पत्नी ने एक सुन्दर सी बेटी को जन्म दिया था। बेटी के आने से राघव बहुत खुश था..नवरात्रि के दिनों में जन्म होने के कारण उसने अपनी बेटी का नाम दुर्गा रखा था। वह अपनी बेटी को जान से भी ज्यादा प्यार करता था। हर सुबह काम पर जाने से पहले वह अपनी बेटी का पैर छूना नहीं भूलता था। दिन अच्छे से गुजर रहे थे किन्तु आज वह बहुत चिंतित नजर आ रहा था। कारण…उसकी बेटी दुर्गा की अचानक तबियत ख़राब हो गयी। वो ट्रक लेकर लगभग पचास किलोमीटर घर से दूर आ गया था…तभी उसकी पत्नी सुषमा का फ़ोन आया। बेटी सरकारी अस्पताल में भर्ती थी। वहाँ सुविधा न होने के कारण डॉक्टर ने दुर्गा को प्राइवेट अस्पताल में रिफर कर दिया था जहाँ इलाज के लिए बीस हजार रूपये मांगे जा रहे थे। इधर-उधर से कर्ज लेकर वह तुरंत घर की ओर लौट पड़ा। उसे कुछ भी सुझाई नही दे रहा था। आज वह जिंदगी में पहली बार इतनी स्पीड में ट्रक चला रहा था। तभी अचानक उसे सामने बैरियर दिखाई दिया। ट्रक रोकने के लिए वह ब्रेक पर लगभग खड़ा हो गया। ट्रक पलटते-पलटते बची और तेज आवाज करते हुए ठीक बैरियर के पास आकर रुकी।
ट्रक रुकते ही चार-पाँच नवयुवक हाथ में डंडे लिए हुए ट्रक के सामने आये। उनमे से एक बोला,”क्यों बे,दारू पी के ट्रक चला रहा है क्या?” बाकी चार युवकों ने उसे खींचकर नीचे उतार लिया।
राघव ने हाथ जोड़कर कहा,” गलती हो गयी भैया…मेरी इकलौती बेटी बहुत बीमार है…अगर मैं जल्द ही घर न पहुंचा तो अनर्थ हो जायेगा…प्लीज आप लोग मुझे जाने दीजिये”
तभी उनमे से एक तिलकधारी युवक जो कि जीन्स-टी शर्ट में था..मुस्कुराते हुए बोला,” अरे चले जाना….पहिले नवरात के कार्यक्रम के लिए चन्दा तो देते जाओ ।”
राघव ने जेब से सौ का नोट निकाला और देते हुए बोला,” ये लो भैया…रसीद काटने की जरूरत नहीं…अब मुझे जाने दो…मेरी बेटी बहुत बीमार है।”
” अबे हलकट, भिखारी समझ रखा है क्या ? चल पाँच सौ निकाल।” तिलकधारी राघव को घूरते हुए उसके नजदीक आकर बोला। राघव की साँसों में शराब की गंध घुलती हुई महसूस हुई।
वह गिडगिडाते हुए बोला,” भैया जी,मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं…मेरे पास अपनी बेटी का इलाज कराने को भी पैसे नहीं हैं…मुझे जाने दो…मैं आप लोगों के हाथ जोड़ता हूँ।”
उसने ट्रक पर चढ़ने की कोशिश की तभी उन युवकों में से एक ने उसकी कमर पर डंडा खीचकर दे मारा।
वह लड़खड़ाकर नीचे गिर पड़ा। किन्तु बेटी का ख्याल आते ही वो सारा दर्द भूल कर खड़ा हुआ और बोला,”मारो मत भैया देता हूँ…” उसने कर्ज लिए बीस हजार रुपयों में से पाँच सौ रुपये का नोट निकालकर उस तिलकधारी को थमा दिया।
तिलकधारी ने नोट पकड़ा और मुँह से गुटखा थूंक कर बोला,”झूठ बोल रहा था साला…बिना डंडा पड़े तुम लोगों को समझ में नही आता।”
राघव ने जैसे उसकी बात सुनी ही न हो। वह झट से ट्रक पर चढ़ा और स्टार्ट करके आगे बढ़ गया। अगले ही पल उसकी ट्रक हवा से बातें कर रही थी।
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उधर राघव की पत्नी सुषमा अपनी बेटी दुर्गा को गोद में लिए अस्पताल के गेट पर खड़ी राघव का इंतजार कर रही थी।उसके बाल बिखरे हुए और कपडे भी अस्त-व्यस्त… साथ में राघव की बहन रश्मि भी टकटकी लगाये भाई के आने का इंतजार कर रही थी। तभी भागते हुए राघव ने अंदर प्रवेश किया।
उसने बच्ची को सुषमा से छीन लिया और उसे पागलों की तरह चूमने लगा और अस्पताल के अंदर की ओर भागा। सारी औपचारिकता पूरी होने के बाद डॉक्टर ने दुर्गा का चेकअप किया और राघव की ओर देखकर बोला,” दस मिनट पहले क्यों नही लाये इसे?”
राघव पागलों की तरह डॉक्टर को देख रहा था ।उसे इस प्रश्न का उत्तर समझ में नही आया। वह झुझलाकर बोला,”आपको इससे क्या मतलब…आप बच्ची का इलाज करिए..जितना पैसा लगेगा मैं दूंगा आपको..खुद को बेच दूंगा डॉक्टर लेकिन…लेकिन मेरी बेटी को कुछ नहीं होना चाहिए।”
डॉक्टर ने गंभीर मुद्रा में राघव और उसकी पत्नी की ओर देखा और निराशापूर्ण अंदाज में बोला,”देखिये अगर आप दस मिनट पहले आये होते तो मैं इसे बचा लेता…किन्तु अब मैं कुछ नहीं कर सकता। आपकी बेटी मर चुकी है।”
राघव पर तो जैसे वज्रपात हो गया। सुषमा गश खाकर वहीँ गिर पड़ी और रश्मि चीख मारकर रोने लगी। राघव एकदम शांत था…उसने दुर्गा को अपनी गोद में ले लिया और बोला,” डॉक्टर साहब मेरी बेटी नहीं मर सकती…तुम झूठ बोल रहे हो और …ये क्या दस मिनट..दस मिनट लगा रखा है …मेरी पत्नी दो घंटे से अस्पताल में है मगर तुम लोगों को तो पैसा चाहिए न। इंसान के जिंदगी की तो कोई कीमत ही नहीं तुम्हारी नजर में।”
राघव अपनी बेटी को लेकर कई डॉक्टरों के यहाँ गया किन्तु हर जगह उसे यही जवाब मिला किन्तु उसका मन था कि इस सच्चाई को स्वीकार ही नही कर रहा था। वो अपनी बेटी को हमेशा अपने सीने से लगाये रखता था। उसकी माँ,पत्नी,बहन,अड़ोसी-पडोसी समझा-समझाकर थक गए किन्तु राघव ने बेटी का अंतिम संस्कार करने से साफ़ मना कर दिया। दो दिन बीत गए अभी भी वो अपनी बेटी को सीने से लगाकर कभी इस डॉक्टर तो कभी उस डॉक्टर के पास पहुँच जाता। अब तो लोग उसे पागल भी कहने लगे थे।
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“अरे रे रे मेरी बिटिया रानी….सो जाओ…देखो रात होने वाली है…सो जाओ…देखो पापा तुमको लोरी सुनाने वाले हैं…” राघव सड़क के एक किनारे बैठा अपनी बेटी की लाश को थपकियाँ देकर सुला रहा था..तभी उसके मस्तक पर एक पत्थर आकर लगा। राघव अपनी दुर्गा को अपनी बाहों में छुपाकर भागा। उसके पीछे आवारा बच्चों की टोली आ रही थी। सबके हाथ में पत्थर थे। राघव बड़ी तेजी से भागते हुए सड़क पार करने लगा तभी एक तेज रफ़्तार ट्रक आकर उसके बदन से टकराई और कुचलते हुए निकल गयी। सड़क पर एक हृदयविदारक चीख गूंजी और पल भर में सब शांत हो गया। चारों ओर सन्नाटा था। धीरे-धीरे वहां भीड़ जुटने लगी। उस भीड़ में वह तिलकधारी भी अपने दोस्तों के साथ मौजूद था जिसने राघव से नवरात का चन्दा वसूलने के लिए ट्रक रुकवाई था। उसने राघव का कुचला हुआ चेहरा देखा तो उसे लगा कि जैसे इस चेहरे को उसने कहीं देखा हो। वह अपने मस्तिष्क पर जोर डालने लगा तभी उसके एक मित्र ने हाथ खीचते हुए कहा,”अरे नारायण, यहाँ खड़े होने की जरूरत नही है…ऐसे हादसे तो होते ही रहते हैं। चलो,नवरात की तैयारी भी तो करनी है…सब तुम्ही को खोज रहे हैं।इतना कहकर वह तिलकधारी को पकडकर खीचने लगा ।
तभी नारायण बोला,”रुक जा रवि …देख यार , इस व्यक्ति को शायद मैंने कहीं देखा है।रवि नामक उस व्यक्ति ने भीड़ में घुसकर लाश के चेहरे को देखा और धीरे से नारायण से बोला,”यार ये तो वही ट्रक वाला है जिसे हमने चंदे के लिए रोका था और दो डंडे भी लगाये थे…”
नारायण को कुछ कुछ याद आने लगा…वह सोचते हुए बोला,”हाँ उस दिन शायद इसकी बेटी बीमार थी…अरे वो उसने अपनी बाहों में क्या छुपा रखा है?” नारायण ने आगे बढ़कर देखा और स्तब्ध रह गया,”अबे ये तो कोई बच्ची है इसकी बाहों में।”नारायण ने तमाम लोगो से राघव के बारे में पूछताछ की और सारी कहानी जानकर वह आत्मग्लानि से भर उठा।
तभी पुलिस आ गयी और लोग कुछ पीछे हट गये। राघव का पूरा शरीर जख्मी था किन्तु उसकी बेटी दुर्गा के शरीर पर एक खरोच भी नहीं थी…सारे लोग आश्चर्यचकित थे किन्तु नारायण का मस्तिष्क कुछ और ही सोच रहा था।अचानक वो राघव की लाश की ओर झपटा और उसकी बाँहों से बच्ची की लाश निकालकर भागने लगा….
बच्ची को लेकर भाग रहे नारायण को पुलिस ने पकड़ लिया। नारायण का दोस्त रवि भौचक्का रह गया। नारायण मंदिर के पुजारी विष्णुशंकर तिवारी का बेटा था किन्तु बुरी संगत ने उसे बिगाड़ कर रख दिया था। विष्णुशंकर तिवारी कहने को तो मंदिर के पुजारी थे किन्तु वो खानदानी रईस थे। जैसे ही उनको अपने बेटे की गिरफ़्तारी का पता चला। लाव लश्कर के साथ थाने जा पहुँचे। एस ओ उनकी हैसियत से बखूबी वाकिफ था इसलिए नारायण के साथ सख्ती नहीं दिखाई थी। पिता को देखते ही नारायण दौड़कर उनके क़दमों में झुक गया और गिडगिडाते हुए बोला,”बाबू जी उस बच्ची को बचा लीजिये…वो बच जाएगी बाबू जी।”
मगर विष्णुशंकर कुछ नहीं बोले और उसे पकड कर गाडी में बिठाया। चंद पलों में गाडी हवा से बातें कर रही थी। नारायण रोता जा रहा था और कहता जा रहा था,”बाबू जी,राघव मेरी वजह से मरा है…अगर मैंने चन्दा लेने के लिए उसके साथ ज्यादती न की होती तो आज उसकी बच्ची और वो दोनों जीवित होते…बाबू जी राघव तो चला गया मगर उसकी बच्ची को बचा लीजिये…मेरी बात एक बार मान लीजिये बाबू जी…बस एक बार।” इतना कहकर वो फूट फूटकर रो पड़ा किन्तु बाबू जी कुछ न बोले।
तभी गाड़ियों का काफिला रुका। बाबू जी नीचे उतरे और नारायण को खींचकर नीचे उतारा।
चारों और घुप्प अँधेरा था। नारायण को कुछ समझ में नही आ रहा था कि वो कहाँ है। तभी एक और गाडी वहां आकर रुकी। नारायण ने उस गाडी से एक महिला को उतरते देखा। मैले-कुचैले कपडे पहने वो महिला अपनी गोद में राघव की बच्ची के शव को लेकर खड़ी थी।
राघव आश्चर्य से उसे देख रहा था। बाबू जी बोले,”देखो नारायण,ये राघव की पत्नी है…इसकी गोद में राघव की बच्ची है जो कि मर चुकी है…मैंने शहर के सबसे बड़े डॉक्टर से इसका चेकअप कराया है। अब इसके अंदर जान नहीं रह गयी। मैंने इसके अंतिम संस्कार का बंदोबस्त कर दिया है। इसलिए अब तुम ये पागलपन छोडो और घर चलो।”
नारायण ने जैसे कुछ सुना ही न हो..वो धीरे से आगे बढ़ा और सुषमा के हाथ से उस बच्ची को ले लिया और बोला,”बाबू जी , ये बच्ची नहीं मर सकती…देखो न तीन दिन बीतने के बाद भी इसका शरीर ठंडा नहीं हुआ है। ये जियेगी बाबू जी…राघव को विश्वास था की ये जियेगी और बाबू जी राघव के विश्वास पर मुझे विश्वास है…इसे जीना होगा बाबू जी ।जब तक इसकी साँसें नहीं लौटेंगी मेरा प्रायश्चित पूरा नहीं होगा…।”
तभी बाबू जी कडक स्वर में बोले,” ये क्या बेहूदगी है नारायण..जब बड़े-बड़े डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो अब कौन बचाएगा इसे?”
नारायण मुस्कुराते हुए बोला,”वही बचाएगी इसे बाबू जी …जिसने इसे पैदा किया है। आप तो पुजारी हैं बाबू जी..माँ दुर्गा के ऊपर तो आपको विश्वास होगा ही। वही इसे बचाएंगी..मैं अन्न जल सब त्याग दूंगा बाबू जी…जब तक ये उठ कर किलकारियां नहीं मारेगी मैं नारायण आपका पुत्र शपथ लेता हूँ कि मैं अन्न जल ग्रहण नही करूंगा।”
बाबू जी निराश मन से बोले,” ठीक है…अगर तुम्हे विश्वास है तो करके देख लो किन्तु मैं फिर यही कहूँगा कि जाने वाले लौटकर नहीं आते।”
“ये आएगी बाबू जी…इसे आना पड़ेगा।” नारायण पागलों की तरह बोला।
बाबू जी सुषमा की ओर मुड़े जो कि शांत खड़ी थी किन्तु उसकी आँखों से अविरल अश्रु बह रहे थे।बाबू जी बोले,”तुम क्या कहती हो?”
सुषमा आंसुओं को पोछते हुए बोली,” मैं क्या कहूँ बाबू जी…मुझे भी अपनी बच्ची जिन्दा चाहिए।”
बाबू जी तुरंत अपनी गाडी में बैठे और वापस लौट गये..अन्य गाड़ियाँ भी उनके पीछे-पीछे वापस लौट गयीं। चारों ओर सन्नाटा था…घना अँधेरा और डरावना वातावरण…नारायण ने ध्यान से देखा तो उसे महसूस हुआ कि वो शमशान था।उसने सुषमा से कहा,”मुझे अपने घर ले चलो।”
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राघव के घर पहुंचकर उसने सारे घर की साफ़ सफाई की और चौकी पर माँ दुर्गा की मूर्ति रखकर उसी मूर्ति के सम्मुख राघव की बेटी का शव रख दिया। चूंकि नारायण ने कभी पूजा-पाठ के काम में रूचि नहीं ली थी इसलिए उसे एक भी मन्त्र नहीं आता था किन्तु फिर भी वह पूरी निष्ठा के साथ अपने काम में लगा रहा। वह रात भर नहीं सोया…अगले दिन सुबह तडके ही दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर वो अपने आसन पर बैठ गया।
धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। इस बात की चर्चा गाँव से निकल कर शहरों तक पहुँच गयी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनल चौबीस घंटे इसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे। हजारों लोगों की भीड़ राघव के घर के सामने जुटी रहती। कुछ उसे बेवकूफ कहते तो कुछ चमत्कार की उम्मीद भी लगाकर बैठे थे। राघव की पत्नी,बहन और माँ नारायण के निर्देश के अनुसार काम कर रहे थे। उन्हें नारायण में भगवान का स्वरुप दिखने लगा। उधर ब्राह्मण बिरादरी एक दलित के घर में एक ब्राह्मण के इस हरकत से अत्यंत खिन्न थी किन्तु भारी भीड़ और मीडिया के सम्मुख कोई कुछ नहीं बोल रहा था। चार दिन बीते थे कि नारायण की तबियत बिगड़ने लगी। प्रशासन ने नारायण की पूजा को रोकने का प्रयास किया किन्तु गाँव के दलित वर्ग ने एकजुट होकर इसका विरोध किया फलतः प्रशासन को अपने कदम पीछे खीचने पड़े ।अखबार आवश्यक रूप से इस खबर को प्रचारित-प्रसारित कर रहे थे जिसके कारण प्रशासन भी दबाव में आ गया और डॉक्टरों की एक टीम नारायण के स्वास्थ्य पर नजर रहने के लिए लगा दी गयी।
नवरात के आठ दिन बीत गए किन्तु उस बच्ची का शरीर निष्प्राण ही रहा। उधर नारायण भी अपनी जीवनी शक्ति खोता जा रहा था। उसे अपनी नजर के सामने राघव का चेहरा घूमता हुआ महसूस होता। खबर पाकर नारायण के बाबू जी भी आ गये और अब वो भी अपने बेटे के सर को अपनी गोद में लेकर बैठे रहते। हर तरफ नारायण की ही चर्चा हो रही थी।
आज नवरात का आखिरी दिन था किन्तु बच्ची का शव,शव ही बना रहा।
नवें दिन नौ कन्याओं को भोज कराया गया किन्तु कोई फायदा नही हुआ। नारायण अपनी गोद में बच्ची का शव लेकर दीवार पर पीठ सटाकर बेजान बैठा था और माँ की मूर्ति को आशा भरी निगाह से देख रहा था जैसे कि कह रहा हो कि क्या माँ ऐसे ही चली जाओगी ।तभी अचानक एक बूढी औरत दौड़ते हुए अन्दर घुसी और नारायण को झिंझोड़ते हुए बोली,”अरे पागल,तेरे कारण राघव की पत्नी भी तो विधवा हुई है…उसकी मांग में सिन्दूर भर तब तेरा प्रायश्चित पूरा होगा।”
इतना कहकर वो बुढ़िया तेजी से निकली और सबकी नजरों से ओझल हो गयी। नारायण दीवार पकड़कर खड़ा हुआ और सुषमा से बोला,”सिन्दूर लाओ।”
सुषमा स्तब्ध थी। उसे कुछ समझ में नही आ रहा था । नारायण ने माँ की मूर्ति के पास रखी सिन्दूर की डिब्बी उठाई और उसमे से एक चुटकी सिन्दूर लेकर सुषमा के समीप पंहुचा जो कि सर झुकाए खड़ी थी। तभी बाबू जी दौड़ते हुए अन्दर आये और नारायण का हाथ पकड़ कर बोले,”नारायण…ये क्या अनर्थ कर रहा है? ये अछूत है..तुम इसकी मांग नहीं भर सकते..मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूँगा..ये समाज क्या कहेगा?”
नारायण ने बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोली और बाबू जी की ओर देखते हुए बोला,”बाबू जी मैं ही समाज हूँ…”
इतना कहकर उसने सुषमा की मांग में सिन्दूर भर दिया और जमीन पर गिर पड़ा। भीड़ कमरे में घुसने की कोशिश कर रही थी। पुलिस बल को नियंत्रण करने में बड़ी परेशानी हो रही थी ।अचानक कुछ ऐसा हुआ कि सब शांत हो गए। ये क्या ये तो बच्चे के रोने की आवाज थी। नारायण ने आँखें खोलकर देखा तो उठ कर बैठ गया…उसके बदन में जाने कैसे जान आ गयी। उसने अपनी दुर्गा को अपने सीने से लगा लिया और बाहर निकल आया। जय माता दी की ध्वनि से आकाश गूँज उठा। नारायण ने दुर्गा की आँखों में देखा और दुर्गा मुस्कुराने लगी। सुषमा भी नारायण के समीप आकर खड़ी हो गयी। राघव की बहन और माँ नारायण के पैरों पर गिर पड़ीं। नारायण ने उन्हें उठाया और बाबू जी से बोला,”बाबू जी,क्या आपके घर में आपकी बहू के लिए जगह है?”
बाबू जी ने बिरादरी के लोगों की तरफ घूमकर देखा और बोले,”केवल बहू को ही नही बेटा…ये दोनों भी हमारे ही साथ रहेंगी।” उन्होंने राघव की बहन और माँ को देखते हुए कहा।
“और आपका समाज…वो क्या कहेगा?” नारायण ने शरारत से कहा।
बाबू जी ने नारायण का हाथ पकड़ा और बोले,”मैं ही समाज हूँ बेटा।” अचानक हुए इस घटनाक्रम को समझने का किसी को वक़्त ही नहीं मिला और नारायण अपनी दुर्गा को लेकर घर की ओर चल पड़ा।
इस चमत्कार से सारे लोग खुश थे साथ ही कहीं दूर खड़ी एक बुढ़िया भी उन्हें जाता हुआ देखकर मुस्कुरा रही थी