मैं ही क्यों?
——————————
अंत:पुर के संसार में संग्राम है,
आधिपत्य,अधिकार की लालसा।
औरत को मर्दानापन की ललक।
बन जाने का लोभ, दुर्वासा।
सामंजस्य साझा फर्ज है।
औरत माँ बनी तो बोली।
माँ सास हुई तो द्वंद्व को
विस्तार से यहाँ,वहाँ बो दी।
तुम्हें माँ बनना है या औरत!
अशुद्ध माँएं बहुओं को दुश्मन,
बेटियों को मासूम,बेटे को गुलाम
आयी है समझती।
बहुओं के सारे सुख-चैन छीनकर
बेटियों को देने का मन बनाती।
शुद्ध माँएँ सृष्टि को संतान जैसी
देखें तो, होती है।
दूसरे के प्रसन्न होने के लिए
‘स्त्री’ के सारे वसन उतार देती है।
ममत्व के आंचल पसार देती है।
यह नीयत है नियति की।
स्त्री ही सुख की संरचना करती है
इस बुद्धिजीवी बुद्धू संसार में।
शीतल और सुखद एक वही होती आई है
ब्रह्म के फैलाये इस विस्तार में।
पुरुष कर्मयुद्ध के व्यूह रचने और
दुर्ग पर झंडे फहराने को पौरुष।
कुचलकर बढ़ जाने को विजय
चींटी हो या मच्छर।
स्त्री का धर्मयुद्ध पुरुष के कंधे का
अवलंबन।
आपसी रिश्ते और संबंध का अंतत:
टूटन।
साझा चूल्हे को साझा रखने का सवाल।
और होता हुआ रोज बवाल।
पुत्री ने सोचा,मैं ही क्यों?
बहू बोल पड़ी,”मैं ही क्यों?”
———-8/1/22————————-