मैं मायूस ना होती
रचना नंबर (21 )
मैं मायूस ना होती
जो कोई फ़र्श से उठकर
चाहे अर्श को छूले
कोई कितना भी इठलाए
गिला मुझको नहीं होता
मेरे वजूद की हस्ती से कभी मायूस ना होती
सूरज रोज़ आता है
चाँद भी मुस्कुराता है
ये तारे टिमटिमाते हैं
जहाँ में रोशनी लाते
मैं जुगनू सी चमक करके तम में मुंह छुपाती हूँ
मेरे वजूद,,,,,
सुहानी सुबह होती है
रूहानी रात आती है
दोपहर की भी अपनी
और ही बात होती है
मैं धुंधली शाम का साया हूँ बस थोड़ी उदास होती हूँ
मेरे वजूद,,,,,
ये नदियाँ झूम कर नाचे
ये झरने मस्ती में गाते
समन्दर इतना गहरा है
के सबको ही समा लेता
मैं ठहरी ताल का पानी के मैली हो ही जाती हूँ
मेरे वजूद,,,
सरला मेहता
इंदौर
मौलिक