मैं मन के शोर को
मैं मन के शोर को
ठीक ठीक लिख नहीं पाता
आवाजें धागा नहीं होती
उलझी हुई आवाज़ों के सिरे
हाथ नहीं आते
और शोर बढ़ता जाता है
मन बहरा हो जाता है शोर से
कुछ सुनता नहीं
कुछ कहता नहीं
बाहर मैं चुप हूं
ना जाने शोर कब बंद हो जाए
ना जाने मन कब बोल उठे!!