मैं बहुत जीता हूँ, …….
मैं बहुत जीता हूँ, …….
जीता हूँ
और बहुत जीता हूँ
ज़िन्दगी के हर मुखौटे को
जीता हूँ //
हर पल
एक आसमाँ को जीता हूँ
हर पल
इक जमीं को जीता हूँ //
मैं ज़मीन -आसमाँ ही नहीं
अपने क्षण भंगुर
वजूद को भी
जीता हूँ //
कभी हंसी को जीता हूँ
तो कभी ग़मों के जीता हूँ
जिंदा हूँ जब तक
मैं हर शै को जीता हूँ //
मगर
घृणा होती है इस जीने से
जब
कहीं कोई नारी
वासना भरी दरिंदगी की शिकार होती है //
जिसकी चीखों से
व्योम भी अशांत हो जाता है //
जब
कहीं कोई नारी भ्रूण
ममत्व से तिरिस्कृत हो
किसी कचरे के ढेर
मंदिर की सीढ़ी
या बाल आश्रम में
नियति के भरोसे छोड़ दिया जाता है //
जब
कहीं कोई वृद्ध
अपनों की उपेक्षा का
शिकार होता है //
जब
सड़क पर आहत
कोई रक्त रंजित व्यक्ति
किसी सहारे के लिए
तड़पते तडपते शांत हो जाता है //
हाँ
तब भी मैं जीता हूँ
मगर
एक घृणा के साथ //
घृणा
इंसान में मरती इंसानियत को देखकर
घृणा
संस्कारों को मिटते देखकर
घृणा
संवेदनाओं का क्षरण देखकर //
हाँ सच कहता हूँ
इतना सब होने के बावजूद भी
मैं जीता हूँ //
मैं अपने
असहाय वजूद की मौत को
हर पल जीता हूँ
हाँ !
मैं बहुत जीता हूँ
हंसी के खोल में
ज़िन्दगी के दर्द को जीता हूँ //
सच
मैं बहुत जीता हूँ
मैं बहुत जीता हूँ ….
सुशील सरना/