मैं “परिन्दा” हूँ………, ठिकाना चाहिए…!
ज़िन्दगी जी लूँ…………, तज़रबा चाहिए
डूबते को बस………….., सहारा चाहिए।
है तलब लोगों को…….., सुनने की मुझे
फिर नया सा कोई……, किस्सा चाहिए।
आँधियां रुख़ मोड़ लेंगी…., ख़ुद-ब-खुद
बस हमें बुनियाद पुख़्ता………, चाहिए।
ज़िन्दगी कुछ कह गयी……, यूँ कान में
मुझसे लड़ने को…….., कलेजा चाहिए।
छत हो मंदिर, या हो मस्जिद की., सुनो
मैं “परिन्दा” हूँ………, ठिकाना चाहिए।
पंकज शर्मा “परिन्दा”