मैं तो अकर्मण्य हूँ
मैं तो अकर्मण्य हूँ
ये ठहरी सुन्न पृथ्वी!
उसमें चिपटी धरा अगौनी कहाँ कर रही है ?
अतीत भी दम्भ में
मुँह मोड़ ली है…!
कौन अगिर इन्द्र, कौन ब्रिटिश ?
सौन्दर्य के क्या परिसीमन है
अधपके बाल में कैसा खिजाब
फिर क्यों ही, सिर्फ सजती हिमालय
अन्य पर्वत, पहाड़, नदियाँ, झील कहाँ ?
नभ से गिरता कभी ऊक भी
अपने अस्तित्व के व्यक्तित्व छोड़
परिपूर्ण समर्पण, विनीत, प्रेम को ले
आखिर ब्रह्माण्ड से पृथ्वी को क्यों आती !
:- वरुण सिंह गौतम