मैं तेरी आशिकी
डा . अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
@ मैं तेरी आशिकी @
रु-ब रु आयेंगे तेरे तुझको ही तुझसे चुरायेंगे
पता भी न चलेगा सनम ऐसी जुगत भिडायेंगे ||
इश्क के खेल में महारत हो ऐसा नहीं होता सखी
आशिकी का फलसफा लेकिन हम भुनायेंगे सखी ||
लाख छुपा लो अरमानों को ये तो छुप न सकेंगे आद्तन
वक्त मिलते ही उभर कर बुद् बुदे से बुद्बुदाएंगे ये सखी ||
चैन से मैं जी रहा था एक अपनी ही मौज में
सामने आकर तुम्ही ने बैचेंन मुझको कर दिया ||
बे नकाब आकर इतरे हिना से भर दिया
हरजाना तो हम अब इसका सनम लेकर ही जायेंगे ||
रु-ब रु आयेंगे तेरे तुझको ही तुझसे चुरायेंगे
पता भी न चलेगा सनम ऐसी जुगत भिडायेंगे ||
युं तो आवारा पन हर किसी को है लुभाता एक दिन
बद्लियाँ क्युं खेलती हैं लुका छिपी चांद के रुखसार से ||
एक खामोशी सी थी पसरी इस अबोध के संसार में
जुल्फ को रुखसार पर गिरा कर मुझको मारा प्यार से ||