“मैं” का मैदान बहुत विस्तृत होता है , जिसमें अहम की ऊँची चार
“मैं” का मैदान बहुत विस्तृत होता है , जिसमें अहम की ऊँची चारदीवारी होती है , महत्वकांक्षाओं की घनी खरपतवार होती है , खुद को बार-बार सबसे ज्यादा सही साबित करने की सनक होती है और ऐसे में अन्य किसी का भी अस्तित्व बेहद सूक्ष्म लगता है ।।
संसार को अपनाने के लिए “मैं” को त्याग कर स्वयं को शून्य समझना पड़ता है ।।
सीमा वर्मा
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹