मैं एक बूढ़ा लाचार गरीब किसान
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मैं हूँ इक बूढ़ा लाचार बहुत ही गरीब किसान….
हाय ओ दाता कितनी विपदा कैसे करें निदान।
घर में मुट्ठीभर दाना नहिं सूखा खेत-खलिहान।।
कागज के पन्नों को रंगते, लिखते लोग महान।
मेरी मजबूरी,लाचारी का नहिं किसी को भान।
मैं हूँ इक बूढ़ा………
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लाखों लोगों का पोषक मैं अन्नदाता भगवान।
पर खुद अपने घर में हूँ दरिद्रता से परेशान।।
फटे पैर,हाथों में छाले ,सिर चिंता का निशान।
दिन-रात मेहनत करके भी गिरवी मेरा मकान।
मैं हूँ इक बूढ़ा…………..
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प्रकृति की कृपा रही तो खिला मुखरे पे मुस्कान।
कोप हुई तो फसल नष्ट और,टूटे सब अरमान।।
अपनी मेहनत से उगाता अनाज,गेहूं व धान।
अपने हाथों कुछ नहीं,भरा महाजन का गोदान।
मैं हूँ इक बूढ़ा…………..
एक थी बेटी जिसका कर ना पाया कन्यादान।
डोली उसकी अर्थी बन गई पहुंच गई श्मशान।
इक बेटा फाँसी पे झूला,इक गोली का निशान।
छिन लिया मेरे लाल को क्रूर सरकारी हैवान।।
मैं हूँ इक बूढ़ा………
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राजनीति की सूली चढ़ा मेरा दो पुत्र जवान।
बुझ गया मेरे घर का चूल्हा,आँगन है सुनसान।।
गंदी राजनीति के आगे खामोश दबा जुबान।
किसानों के समस्या पे नहीं देता कोई ध्यान।।
मैं एक बूढ़ा…………
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देखो सत्ता की कुर्सी पे बैठा हुआ शैतान।
ले ली जिसने हम जैसे कितने किसानों की जान।।
कौन सुनता किसानों की आपबीती हे भगवान।
थाने,बस जला रहे चलता राजनीति की दुकान।।
मैं हूँ इक बूढ़ा……….
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भविष्य भी भयभीत मेरा, रो रहा है वर्तमान।
ना जाने कैसे होगा फिर इस देश का कल्याण।।
जिससे है उम्मीद हमें उनकी चिंता बस मतदान।
फिर मैं ये कैसे कहूँ कि — है मेरा भारत महान।।
मैं हूँ इक बूढ़ा लाचार गरीब किसान… ।
???—लक्ष्मी सिंह ?☺