‘मैंने देखा!’
‘मैंने देखा’
मैंने देखा उसे…
उछलकर नंगे पाँव चलते हुए,
तलवों को काँटों से बचाते हुए,
तन का संतुलन बनाते हुए।
फीके मैले वस्त्रों को
कंटीली झाडिय़ों से बचाते हुए,
मैंने देखा!
आँखों में कहीं कोई निराशा नहीं,
चेहरे पर उदासी की छाया नहीं,
केवल गहन लगन अपने काम के प्रति,
एक ठहरा हुआ संतोष उर मेंं,
मैंने देखा!
जंगल में लकड़ी बीनते
सूखी झड़ी हुई
टूटी इधर-उधर पड़ी हुई
सुकुमार सा छरहरा शरीर उसका,
समुचित पोषण के अभाव में,
या उछल-कूद के स्वभाव में,
मैंने देखा!
निर्भयता ओढ़े हुए,
प्रकृति से नाता जोड़े हुए,
दूर घने वन प्रदेश में गाते-गुनगुनाते
मैंने देखा उसे…