मेला
“आज मेले में तो मजा ही आ गया, है न माँ ” रश्मि ने सोफे पर धप्प से बैठते हुए कहा। “हाँ बेटा! मेरा तो मन ही नहीं हो रहा था आज मेले से आने का…” मीना ने मेज पर कुछ थैलियां रखते हुए कहा। “अब तुम दोनों माँ बेटी मेले में ही घूमती रहोगी या बाहर भी आओगी ….” राघव ने मीना और रश्मि को संबोधित किया।कुछ देर शांति रही…और अचानक सन्नाटे को चीरते हुए रश्मि बोल पड़ी “अरे माँ भैया अभी तक क्यों नहीं आए?” । “ये लड़का भी न …कहाँ-कहाँ रह जाता है ..आने दो आज खबर लेती हूँ ..” मीना ने गुस्से भरे लहजे में कहा।
“कहाँ रह गया था तू? तुझे पता है न मैं कितना परेशान हो जाती हूँ ..पर तुझे तो कोई परवाह है ही नहीं ..हूह…” मीना ने आते ही संयम के सामने सवालों की झड़ी लगा दी। “माँ ! वो मेले में एक बच्चा खो गया था …मुझे मिल गया तो मैं उसे सुरक्षित घर छोड़ने चला गया ..इसीलिए देर हो गयी” संयम ने वजह बता दिया । “पूरे दुनिया के भला करने का ठेका तूने ही तो ले रखा है…और अपनी माँ तो परायी है न ” मीना ने नाराजगी जताते हुए कहा। संयम थोड़ा मुस्कुराया “माँ ग्यारह साल पहले मेले में एक बुजुर्ग आदमी ने ऐसा ही सोचा होता तो शायद मैं आपसे फिर कभी न मिल पाता..।”
ग्यारह साल पहले जिस तरह संयम मेले में गुम हुआ था वो दृश्य मीना के आँखों के सामने तैर गयी और उसकी आँखें भर आयी और उसने संयम को गले से लगा लिया।
शाम ढल चुकी थी ।संयम की आँखों में चमक और मन में संतोष था। राघव भी एक कोने में खडे़ होकर यह दृश्य निहार रहा था उसकी भी आँखें नम थी पर होठों पर मंद मुस्कान तैर रही थी…..
आयुष कश्यप