मेरे हाथों में प्याला है
मेरे हाथों में न निवाला
मेरे हाथों में प्याला है
राम नाम मणि बसी हृदय में
भीतर बाहर उजियाला है
क्षुधा प्रशान्त हो गयी मेरी
अब न चाहिए मुझको पानी
सियाराम मय सब जग पाकर
हुई सुधा सम मेरी बानी
अब न ईर्ष्या-द्वेष सताते
कटा मोह-तम का जाला है
अब न मुझे बसना है काशी
और न ही मगहर में मरना
महाकाल से संधि हो गयी
यम की कुंठा से क्या डरना
अब मुदिता बगरी-पसरी है
पड़ा कीर्तन से पाला है
अब बामन का इन्तजार है
रटता रहता ढाई आखर
अब न याचना कभी किसी से
नहीं भटकना है अब दर-दर
फूट पड़ी मेरे अन्तस से
अब तो अति शीतल ज्वाला है ।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी