मेरे भीतर मेरा क्या है
मेरे भीतर मेरा क्या है
तन भी नश्वर मन भी नश्वर
सोच जरा फिर, तेरा क्या है
कोई अब तक जान न पाया,
मेरे भीतर मेरा क्या है
ह्रदय सतत् स्पंदन करता,
हर पल हर क्षण चलता रहता
साँसों के तानेबाने को,
क्या है साँझ, सवेरा क्या है।
जी करता है सब कुछ पा लूँ,
सपनों को जीवंत सजा लूँ,
इस स्वच्छंद विचरते मन को,
बाधाओं का घेरा क्या है।
मन का क्या है, उड़ता जाए,
सुबह शाम सपने दिखलाए
मन के भीतर इच्छाओं का,
प्रतिपल बसा बसेरा क्या है।
धन दौलत चाहत शोहरत सब,
साथ किसी के जा न सका है,
कृष्ण किसी, फक्कड़ कबीर को,
जनम मरण का फेरा क्या है।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
04.02.2019