मेरे प्रेम पत्र
मेरे प्यारे भारत देश,
तुम्हें पता है कि नर्मदा नदी को हम नदी नहीं अपितु नर्मदा मां मानते हैं। यह बात बचपन से मन में है, पिताजी हर पूर्णिमा को मां नर्मदा का दर्शन पूजन-अर्चन करते रहे, कालांतर में यही परंपरा हम भाइयों ने भी अपना ली। कारण इसका जो भी रहा हो पर इसे परंपरा जैसा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आने जैसा मान लीजिए। आस्था की इस कड़ी जीवन में अनेक मनोभावनाओं के साथ साथ सुख-समृद्धि और सुखद अनुभव जुड़े हुए हैं।
मां नर्मदा को लेकर अनेक लोक कथाओं और प्रथाओं का चलन हमारे समाज में है। विवाह का प्रथम निमंत्रण के साथ घर में नर्मदा जल लेकर आने के पीछे भावना यह कि मां नर्मदा के सानिध्य में विवाह निर्विघ्नं संपन्न होगा और विवाह उपरांत पूजन-अर्चन के साथ सम्मान सहित मां नर्मदा की विदाई उनके प्रति आभार सहित मनोभावना यह कि मां नर्मदा के आशीर्वाद से ही सभी रस्में आपके सानिध्य में संपन्न हुईं। हमारे जीवन में मां नर्मदा जैसे मानव रूप में परिवार की सदस्य ही हैं। धर्म-कर्म में नर्मदा जल अमृत समान माना जाता है कहा भी जाता है कि नर्मदा का कंकर-कंकर शंकर है। ढेर सारे लोकगीत, भजन, आरती, पूजन विधियां और मां नर्मदा की स्तुति हमारे समाज में प्रचलित हैं। नर्मदा जल वास्तव में अमृत है हमारी श्रद्धा के साथ-साथ तथ्य भी जुड़े हैं। नर्मदा अपनी दुर्गम जीवन यात्रा में पहाड़ों और चट्टानों के बीच से गुजरते हुए वृक्षों की जड़ों, पत्थर-चट्टानों से अनेक औषधीय तत्व समाहित करती चलती हैं। जो कि अनेक व्याधियों से मनुष्य को बचाने में सहायक हैं।
नर्मदा की जीवन यात्रा मानव को संघर्ष और दिन प्रतिदिन की रुकावटों से लड़ते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। जीवन में लोक संगीत को घोलती हुई नर्मदा हमें हर मुसीबत से लड़कर खुशियां बिखेरने को प्रेरित करती हैं।
मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि पिछले दिनों एक तथाकथित नेता टाइप व्यक्ति ने बातों ही बातों में मुझे बताया कि मैंने आज तक जीवन में जो कुछ भी पाया है वह मां नर्मदा की कृपा से ही पाया है। उसकी इस बात ने मेरी मां नर्मदा के साथ-साथ उसके प्रति भी श्रद्धा बढ़ा दी। मुझे लगने लगा कि मेरी भक्ति उसकी भक्ति के सामने कुछ भी नहीं मुझे खुद पर क्रोध भी आने लगा कि मैं क्यों मां नर्मदा का कृपा पात्र नहीं बन सका और इस नेता टाइप की तरह सारी सुख-सुविधाएं नहीं जुटा पाया, पर मैं भी तो हर पूर्णिमा को मां नर्मदा का दर्शन कर पूजन-अर्चन करता हूं। जिज्ञासा बस मैंने उसके बारे में और अधिक जानने के लिए जानकारी जुटाई कि आखिर उसके ऊपर माता की इतनी कृपा क्यों? क्या उसकी पूजन विधि अलग और विशिष्ट है?, या फिर वहीं पूजन वस्तुओं का उपयोग करता है मैं नहीं कर पा रहा या फिर मुझे मंत्रों का समुचित ज्ञान नहीं है? आखिर कुछ तो कारण है, जो उसके ऊपर मां नर्मदा की इतनी कृपा थी, जो वह कहता कि मेरे पास जो कुछ भी है मां नर्मदा की कृपा से है और मैं मां की कृपा से वंचित था। जिज्ञासा बुरी चीज है पर अच्छी भी है, रहस्य पता चला कि वह तथाकथित नेता टाइप नर्मदा भक्त चोरी से रेत का व्यापार करता है। मन व्यथित हुआ परंतु उसकी सत्यवादिता ने मन मोह लिया। कितनी सहजता से उसने कहा था कि मैंने जीवन में जो कुछ पाया है, वह मां नर्मदा की कृपा से ही पाया है। कहता हर अमावस्या और पूर्णिमा को पैदल मां नर्मदा के दर्शन को जाता हूं। एक तरफ तो यह तथाकथित भक्त धार्मिक होने का दिखावा करते हैं, भंडारे करते हैं, पद यात्राएं करते हैं, घाटों की सफाई करते हैं, दान-दक्षिणा भी बढ़-चढ़कर देते हैं और अपने इस दिखावे से दूसरों को प्रभावित और प्रेरित भी करते हैं परंतु, दूसरी ओर भीतर ही भीतर चोरी-छुपे नदियों को खोखला करते जा रहे हैं। नदियों को प्रदूषण से बचाने का हल इन तथाकथित भक्तों ने शायद इसी रूप में निकाला है कि “ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी।”
नदियां हमारी जीवनदायिनी है ना सिर्फ मानव जाति वरन बहुत सारे जीव-जंतुओं के साथ-साथअनेक संस्कृतियां इनके घाटों पर पलती-बढ़ती हैं।
विडंबना यह है कि अनेक नदियां आज लुप्त प्राय हैं। मां नर्मदा भी खतरे में हैं, आज जरूरत है कि थोथी श्रद्धा से ऊपर उठकर हम नदियों का हृदय से संरक्षण और सम्मान करें।
होना यह चाहिए कि विकास की धारा में बहने वाली मानव जाति को अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए चिंता भाव से प्राकृतिक धरोहरों का संरक्षण करना चाहिये। कहीं ऐसा ना हो कि आने वाली पीढ़ियां नदियों, पर्वतों, पहाड़ों, वनों झीलों, पोखरणों आदि को सिर्फ तस्वीरों और चलचित्रों में ही देख पाए। नदियों से रेत निकालने से शायद ही कुछ लाभ भी हो परंतु अति हमेशा बुरी होती है। इस बात को समझने की आवश्यकता है कि रेत उत्खनन से बनने वाले गहरे गड्ढे भी हर साल सैकड़ों जानें लेते हैं। यहाँ एक बात कहना चाहता हूं कि या तो हम भक्ति का दिखावा ना करें या फिर सच्ची आस्था के साथ कार्य करें। शुभ अवसरों पर घाटों की सफाई की सेल्फियां स्वयं को आनंदित करती हैं पर कभी बिना सेल्फी के भी हृदय से सफाई के कार्य को करने का प्रयास करें। होना यह चाहिए कि नदियों का समुचित संरक्षण हो। नदियां जीवनदायिनी है। नदियों को ईश्वर स्वरूप में पूजने के पीछे कहीं ना कहीं उनके संरक्षण और संवर्धन की भावना भी रही है। धर्म के नाम पर हम थोड़े भावुक हो जाते हैं इसलिए नदियों को धर्म से जोड़ा गया है। आज आवश्यकता है कि हम स्वयं के लिए ना सही परंतु भावी पीढ़ी के लिए नदियों का संरक्षण करें। उन्हें प्रदूषण से बचाएं ताकि आने वाली पीढ़ी हमें धिक्कारे ना।।
जय हिंद