मेरे ठाकुर जी
सरला आंटी माँ से मिलने आईं थी दोनों एक दूसरे का सुख – दुख कह – सुन रहीं थीं मैं नाश्ता टेबल पर रख उन दोनों लोगों को बुलाने गई… ” आंटी आइए आपकी पसंद की गरम गरम कचौरियाँ बनाई हैं ” दोनो लोग उठ कर डाइनिंग में आ गई माँ का अपना नियम – कानून हमेशा से वही तीन वक्त के अलावा मुँह जूठा करने में उनका विश्वास कभी नही रहा और रही चाय तो वो बेचारी माँ के ओठों से लगने को हमेशा से तरसती रही और माँ ने उसको कभी मौका दिया ही नही ।
कुर्सी पर बैठते ही आंटी चहक पड़ी अरे बेटा तुमने तो सोंठ , हरी चटनी और दही पकौड़ी भी बना डाली…रसोई के अंदर से मैं बोली ” आंटी बिना इन सबके कचौरियों का मजा नही है आनंद ले कर खाईये ” मैं चाय लेकर बाहर आई तो देखा आंटी त्रिप्त हो कर खा रहीं थी और माँ खुश होकर उनको देख रहीं थी…मुझे देखते ही बोलीं ” बेटा तुमने तो जी खुश अर दिया तेरे हाथों का स्वाद ऐसे ही बना रहे , अच्छा एक बात बता कुछ पूजा – पाठ भी करती है या अपनी माँ की तरह कर्म को ही सब मानती है मेरी मान ठाकुर जी की सेवा – पूजा करनी शुरू कर दे बड़ी शान्ति मिलेगी ।
” आंटी आप जो भी कह रहीं हैं वो सब सच है लेकिन मेरे ठाकुर जी तो मेरे मिट्टी के काम में ही बसते हैं एक छोटे बच्चे की तरह मैं इनकी देख – भाल करती हूँ बिना पंखा चलाए ईनको बनाती हूँ थोड़ी – थोड़ी देर में आ कर देखती हूँ की कहीं से क्रैक तो नही हो रहा , ढ़क कर रखती हूँ सह समय पर पंखा चलाती हूँ धूप दिखाती हूँ कभी – कभी तो रात में उठ कर देखती हूँ कहीं भी क्रैक दिखता है तो उसी वक्त उसको ठीक करती हूँ और बड़े धैर्य के साथ इनको सूखते देखती हूँ , ये भी तो सेवा – पूजा है ना आंटी… क्यों क्या मैं गलत कह रही हूँ ? आंटी चुपचाप मुझे सुन रहीं थी बोलीं तो कुछ नहीं बस अपना हाथ सर पर रख कर मुस्कुरा दीं , उनकी चुप्पी बहुत कुछ बोल रही थी ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 30/09/2019 )