मेरी वाणी के सौरभ पर —
मेरी वाणी के सौरभ पर ,ये सारा जग जीता है ।
नयन नयन में जोत जगाकर , मेरा जीवन बीता है ।
सुबह सुबह जो राह भूलता
शाम उसे राह बताता ।
ठोकर खाने के जो आदी
पथ उनको मैं बतलाता।
पथ कंटक दूर हटाने का , भाव अभी ना रीता है —-
कायर को पनाह दे देना ,
मुझको कभी न भाया है ।
और निराशा का जीवन में,
गीत न मैंने गाया है ।
आशा सह विश्वास रहे तो , विष भी मानव पीता है —-
आप आप ही की जो सोचे ,
वह भी कोई मानव है ।
पीड़ित पर जो दया न करता,
सचमुच वह तो दानव है ।
भाव शून्य बेराग जगत में , दिखता नहीं सुभीता है —-
धूर्त बहुत हैं इस जग में प्रिय ,
तुम धोखा मत खा जाना ।
जन हित में ही रहकर साथी ,
मनः शांति को पा जाना ।
मनः शांति का कर्म यहाँ अब, कहलाता प्रिय गीता है —-
नयन नयन में जोत जगाकर ,मेरा जीवन बीता है ।
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प्रबोध मिश्र ‘हितैषी’
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