मेरी माशुका
मेरी माशुका सिर से पैर तक
चलता फिरता काव्य
उसके हर एक शब्द
लबों से निकल कर रूह को हैं छु देने वाली
प्रेम और समर्पण की धारा
देहरी के दीपक से होड़ लगा
सुमेलित भक्ति और वीर रस का सूरा पान कराती सी
और अश्रु धारा क्या किसी रोद्र रूप से कम ।
मेरी माशुका सिर से पैर तक
चलता फिरता काव्य
हवा मे लहराती जुल्फे
असरार कोई , नव छटा बिखेरती साज़ कोई
सूरज सी लालिमा बेखरती मुस्कान समझो
छंद वही , राग वही , कवि का आलाप वही ।
मेरी माशुका सिर से पैर तक
चलता फिरता काव्य
जर्रा जर्रा महकते गुलाब सी महक दे तो समझों
शक्त शब्दों की मधुशाला , अर्थो की बलिवेदी वही ।
मेरी माशुका सिर से पैर तक
चलता फिरता काव्य
सोलह श्रृंगार मानो या ना मानो
ख्याली बूँद बन सिहरन पैदा करते तराने से ।