मेरी महबूबा – – एक व्यंग्य – – – – रघु आर्यन
शर्दी जोरू पर है, माफ कीजिएगा जोरू पर नहीं, शर्दी जोरों पर है । वैसे शर्दी और जोरू का संबंध चिरकाल से अटूट रहा है । शर्दी आयी नहीं कि रोमांस की लिप्सा हिलोरने लगती है, जिसकी पूर्ति हेतु पुरातन संस्कृति में जोरू ही एकमात्र सहारा हुआ करती थी, जैसे पचास-साठ के दशक में कांग्रेस । हां कुछ अभिजात्यों के लिए अवश्य ही कोठे जैसी विलक्षण सुविधा उपलब्ध रहती थी परंतु आज के गर्लफ्रेंड जैसी अमूमन सर्वसाध्य उपलब्धता कहाँ थी जो आज मोबाइल की तरह सभी के जेबों में पायी जाती है । वो अलग बात है कि मोबाइल को लोग महबूबा की तरह हिफाज़त करते हैं और महबूबा को मोबाइल की तरह दो कौड़ी का समझते हैं । समझे भी क्यों न, दुनिया में सबसे ज्यादा खुशी देने वाला कोई है तो वह मोबाइल ही तो है और इसके उलट दुनिया मे सबसे ज्यादा दुख देने वाला कोई और नहीं महबूबा ही तो है । अब देखो न, एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल पर जाना शान कहलाता है । वहीं एक महबूबा से दूसरे महबूबा पर जाने में हजारों तिकड़म करने पड़ते हैं । इतने तिकड़म तो भारत में पार्टी बदलने पर नहीं होता, फिर भी महबूबा बदलने का ट्रेंड उच्च स्तर पर बना हुआ है । महबूबा तो आजकल राजनीति की तरह हो गई है । शाही होते हुए भी सबसे गंदी चीज ।
यहां महबूबा का मतलब हमारी महबूबा से है, काश्मीर की महबूबा या आपकी महबूबा मत समझ लेना । वैसे राजनीतिक महबूबा से कम नहीं हमारे महबूबा के वजूद को बचाये रखना । जहां राजनीतिक महबूबा के लिए जनता के उत्थान पर नेताओं के स्वयं का उत्थान भारी पड़ जाता है, वहीं हमारे महबूबा के लिए दिल के व्यापार पर तन का बाजार भारी पड़ जाता है । भारी पड़ना लाजिमी है, आखिर हम और हमारे नेता, दोनों लोग इस सर्द हवा के झोंकों में एक ही गीत तो गुनगुनाते हैं——-
इस शीत लहर मे तू पास मिली है,
ठंडे तन को तेरी सांस मिली है ।
है आग लगी जो इस ठंड बदन को,
तुझसे मिलकर अब कुछ आस मिली है…..
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©रघु आर्यन