मेरी पीड़ा के सम्मुख
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मेरी पीड़ा के सम्मुख
मेरी पीड़ा के सम्मुख कम, सागर की गहराई,
ऐसी रही अभागिन, जिसने नहीं सुनी शहनाई |
दी गुलाब को खुशबू हमने, काँटों को अपनाया,
सुधा बाँट दी वैभव में ही, गरल कण्ठ ने पाया |
सब नाते,रिश्ते ही सुख के, अब तो झोली खाली,
सुख बाँटा ऊँचे महलों में, मिला दु:ख का साया |
मेरे दर्दों से कम अब भी,अम्बर की ऊचाई,
मेरी पीड़ा के सम्मुख कम, सागर की गहराई |
अविश्वास के कारण ही तो,रहा अभागा मेरा जीवन,
मैंने अपनी उम्र गुजारी, नहीं मिला मुझको अपनापन
जिसके लिये समर्पित जीवन, दूर हुये नजरों से वे ही,
उम्मीदें ही खो बैठा मैं, कैसे हो अपना हर्षित मन |
अब तो डर लगता है सच में, विकृत हुई परछाईं,
मेरे दर्दों से कम अब भी, अम्बर की ऊचाई |
ऐसा था विश्वास हमारा, हर बगिया में फूलखिलेंगे,
एक दूसरे के स्वागत में,पलक पाँवड़े यहाँ बिछेंगे
बनी परिस्थितऐसी जिसमें, अपने ही अब दूर हो गये,
नहीं कल्पना की थी मन ने, सपने सभी यहाँ बिखरेंगे |
अब तो पतझड़ के मौसम में, बगिया सब मुरझाई |
मेरी पीड़ा के सम्मुख कम, सागर की गहराई |
डा० हरिमोहन गुप्त