मेरी पहली हजामत
चेहरे पर मुलायम रोयें धीरे-धीरे दाढ़ी मूँछ का रूप धारण करते जा रहे थे। स्वयं को ही मुझे अत्यंत अटपटा लग रहा था। कभी प्रकृति को कोसता भी था कि पूरे तन पर तो तूने बालों की झड़ी लगा दी, चेहरा तो साफ सुथरा रहने दिया होता।
कॉलेज में प्रवेश लेते ही जब अध्यापक महोदय ने डाँट पिलाई कि कल बिना दाढ़ी बनवाये कक्षा में प्रवेश नहीं मिलेगा। दाढ़ी-मूँछ सहित मैं चोर, उचक्का नजर आता हूँ, यह सुनकर मैं अत्यंत निराश हुआ। अब उन्हें कौन समझाये कि इसमें मेरा क्या योगदान है, सब प्रकृति की महिमा है।
बहरहाल मैं समझ गया कि बिना दाढ़ी मूँछ की बलि चढ़ाये शिक्षण कार्य आगे बढ़ने वाला नहीं है, अतः एक शुभ मुहुर्त देखकर अत्यंत निराश भाव से मैं हजामत बनवाने नाई की दुकान पर यों जा रहा था मानो मैं स्वयं की बलि हेतु बलिवेदी की ओर जा रहा था । आखिरकार कई महीने से संजोये गये ये दाढ़ी मूँछ मुझसे जुदा जो होने जा रहे थे।
मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी मूँछ देखते ही सैलून वाले की बांछें खिल गई। खींसे निपोरते अपनी मैली कुचैली अंगोछे से टूटी फूटी कुर्सी साफ करने लगा।
‘आइये साब, आइये, क्या बनेगा…….।’
‘बनेगा नहीं मास्टर, वध करना है।’ मैंने उत्तर दिया
‘वध करना है?……’ सैलून वाला मास्टर चौंक गया।’…….किसका साब?’ आश्चर्य भाव से उसने पूछा।
‘अरे भई, दाढ़ी मूँछ का’ कहता हुआ मैं सैलून की कुर्सी के पास खड़ा हो गया था।
‘हें…हें….हें…हें…आदमी आप काफी दिलचस्प लगते हो।’ मास्टर ने मेरी प्रशंसा की और मेरे दोनों कंधों पर दबाव देकर उसने कुर्सी पर मुझे धम्म से बैठा दिया। फिर उसने निर्देश दिया–‘ भाई साहब, आराम से बैठे रहिये, हिलियेगा नहीं, कुर्सी की एक टाँग टूटी है। जरा भी हिले तो कुर्सी गिर जायेगी। कहीं कुर्सी गिरी तो उस्तरा कहीं भी जा सकता है।’ कहता हुआ अपनी मैली कुचैली अंगोछे को मेरे सीने और गर्दन पर सजाने लगा।
हे भगवान, जाने क्या होगा। उस्तरा कहीं भी जा सकता है अर्थात् मेरी नाक भी कट सकती है। यहाँ तक तो ठीक है, कहीं….कहीं….गले पर चल गया तो….। इन्हीं विचारों में खोया मैंने आत्मसमर्पण करना ही उचित समझा। अब मेरी ठुड्डी पकड़कर कुर्सी के पीछे उसने धकेल दिया जहाँ लकड़ी के एक डंडे ने मेरे सर को थामकर पीछे से सहारा दिया। तत्पश्चात् कैंची की तरह उसकी जुबान चलने लगी।
‘नये लगते हो बाबू, कहीं रिश्तेदारी में आये हो?’ कहते हुये उसने साबुन की एक छोटी सी टिकिया और एक शेविंग ब्रश निकाला। ब्रश की झलक मिलते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मात्र आधी इंच लंबाई के गिनने लायक 8-10 बाल ही थे जिससे वह साबुन की टिकिया मेरे गले और गालों पर फेरने वाला था। बिना हिले डुले ही मैं चीख पड़ा–‘ अरे भाई साहब, ये शेविंग ब्रश है तुम्हारा? लकड़ी का ठूंठ है। इसमें बाल तो है ही नही।’
‘अरे बाबू! आप चिंता न करें। दो में से एक ही जगह बाल रहेंगे। या तो आप की दाढ़ी में या फिर इस ब्रश में। …….आप नये हो इसलिये ये स्पेशल ब्रश मैंने इस्तेमाल किया अन्यथा ये देखिये जो मैं सबके लिये इस्तेमाल करता हूँ।’ कहता हुआ उसने बालविहीन एक लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा मुझे दिखाया। उसे देखते ही भय से मेरा तन सिहर उठा। मैंने आत्मसमर्पण किये रहने में ही अपनी भलाई समझी। ब्रश पानी में भिगो कर साबुन की टिकिया पर वह रगड़ रहा था। उसकी कैंचीनुमा जुबान भी संग-संग चल रही थी साथ ही ब्रश भी मेरे गालों पर फेरता जा रहा था।
‘आपने बताया नहीं, किसी रिश्तेदारी में यहाँ आये हो क्या?’
‘ अरे नहीं भाई, यहीं कोई दो सौ गज की दूरी पर गली के अंदर मकान है मेरा।’ मैं झल्ला उठा था।
‘ अच्छा ? पहले कभी देखा नहीं। आपने मुझे पहली बार सेवा का मौका दिया है।’
‘ अरे भई, पहली बार आज दाढ़ी बनवा रहा हूँ। जब मैं हमेशा तुम्हारे यहाँ आता , तभी तो मुझे देखते।’
‘ क्या?!’ वह चौंक पड़ा। ‘पहली बार ? चलो तब तो अच्छी बोहनी होगी। बाबू इक्यावन रूपये से एक चवन्नी भी कम नहीं लूँगा।’ और वह उस्तरे को सान पत्थर पर रगड़कर धार तैयार कर रहा था। फिर मेरे सर को हौले से बांई ओर झुकाकर बड़ी निर्ममता से उसने उस्तरा मेरे दायें गाल पर रख कर हल्के से दबाव देते हुये नींचे खींचा। चर्रर्र…की आवाज हुई और दाहिने गाल का एक क्षेत्र बालविहीन हो गया था। गाल के बाल की हत्या हो चुकी थी और साबुन के झाग में मानो जुदाई न बर्दाश्त कर सकने के कारण वे तड़प रहे थे। तत्पश्चात् उस्तरा चर्र..चर्र..चलता रहा और मैं साँस रोके उसके निर्देशों का पालन कर शांति का प्रतीक बना बैठा रहा। जैसे ही उस्तरा विचरण करते करते गाल से गले पर आया मैं उचक कर पूर्णतः उदग्र हो गया था। तब तक खचाक् की आवाज हुई और उस्तरे से गले पर एक रेखा खिंच गई। पल भर में ही वहाँ से रक्त चुहचुहाने लगा।
‘ अरे?! ये क्या कर दिये बाबू? मैंने हिलने डुलने के लिये मना किया था न?’ भौंचक्का वह ठगा सा रह गया था।
‘ अरे यार…….गुदगुदी लग रही थी तो क्या करता।’ रक्त देख कर मन दुखी हो गया था। परंतु सोचा ईश्वर का लाख लाख शुक्र है कि गला बचा रह गया।
‘ घबराओ नहीं बाबू, अभी ठीक हो जायगा।’ फिर उस्तरा सामने रख कर धूल भरे दराज से एक मिश्री की डलियानुमा पत्थर निकाल कर सामने रखे कटोरे के पानी में भिगोकर मेरे घाव पर रख दिया। मैं झट से ऐसे उछल पड़ा मानो किसी ने बिजली का करंट छुआ दिया हो।
‘ अरे फिटकरी है बाबू, अभी सब ठीक हो जायगा।’ उसने मुझे आश्वस्त किया।
वास्तव में थोड़ी देर बाद कुछ सामान्य हो गया परंतु दर्द हल्का बना रहा।
‘ अब हिलियेगा नहीं, ठीक है।’
‘ हाँ ठीक है लेकिन उस्तरा ऐसा क्यों चलाते हो कि मुझे गुदगुदी होती है।’
‘ अरे साहब औरों का भी तो इसी तरह बनाता हूँ, उनलोगों को कोई समस्या नहीं होती है। पहली बार है न, थोड़ी बहुत गुदगुदी हो सकती है लेकिन उसे बर्दाश्त करिये साहब।’ सैलून वाले मास्टर ने मुझे समझाया।
‘ अच्छा चलो, ठीक है…..।’ मैंने आत्मसमर्पण में ही अपनी भलाई समझी।
इस बार अत्यंत हौले से उसने उस्तरा गले पर रख कर चलाया। गुदगुदी तो हो रही थी, परंतु स्वयं पर नियंत्रण रखना ही उचित समझा।
‘ हाँ…ऐसे चुपचाप बैठे रहिये।’ उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो स्थिति नियंत्रण में है। परंतु एक जगह उसने जैसे ही उस्तरा रखा, स्थिति पर अत्यंत नियंत्रण रखने के बावजूद भी बहुत तेजी से हँसी छूट गयी, कुछ इस तरह कि पूरे तन में हलचल हो गई। तब तक खचाक् की आवाज हुई और गले पर दूसरी एक रेखा खिंच गई। तन बदन में हलचल कुछ इस तरह हुई कि कुर्सी की टूटी टांग खिसक गई। इसके साथ ही खचाक्…..खचाक्…..खचाक् कई आवाजें आईं और मैं औंधे मुँह धरती को साष्टांग नमन करने लगा। अपने घायल कमर को सहारा देते हुये किसी तरह मैं खड़ा हुआ। दृष्टिपात शीघ्र ही दर्पण को हुआ। मेरा चेहरा हल्दीघाटी का रणक्षेत्र नजर आ रहा था। मैं तो स्वयं को ही नहीं पहचान पा रहा था। उस्तरे ने पूरे चेहरे पर कबड्डी खेला था। मास्टर बेचारा अवाक् मूक दर्शक बना खड़ा रहा। किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहा था। कराहते हुये मैंने कहा– ‘ रहने दो भाई साहब……मुझे नहीं बनवाना है।’
वह निरूत्तर हो गया था। अपने रक्तरंजित चेहरे को उसके अंगोछे से पोंछकर मेरे कदम ज्यों ही बाहर निकले, वह मास्टर चीख पड़ा– ‘ साहब, पैसा……तो…. देते…..।’
‘ क्या कहा? पैसा? और मैंने नीचे गिरे उस्तरे को उठा लिया। मेरे हाथ में उस्तरा देखते ही एक पल के लिये उसके होश उड़ गये। परंतु स्वंय को संयत कर शीघ्र ही उसने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये, तत्पश्चात् विनयपूर्वक उसने कहा—‘ अरे कोई बात नहीं साहब, आप जाइये……लेकिन फिर आइयेगा।’
‘ क्या? गला कटवाने ……..? और मैं तेजी से एक क्लीनिक की ओर बढ़ गया था।
भागीरथ प्रसाद