” मेरी कविता मुझसे बोल पड़ी “
डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल “
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मैं लेटा था …मैं सोया था ,
मेरी आँखें कुछ क्षण बंद हुई !
कभी उस करवट कभी इस करवट,
मेरी निंद्रा मुझसे रूठ गई !!
निरंतर मेरी इन क्रियाओं से ,
मुझे कुछ क्षण अपनी आश जगी !
धीरे -धीरे मंद पवन के झोके से ,
मेरी आँखों में नींद जगी !!
पर मुझे कहाँ सोने देती मेरी ‘कविता ‘
आ गयी स्वप्न में मुझे जगाने !
बोल पड़ी ..मायूस खड़ी ……..,
“क्यों भूल गए हो मेरे फसाने ??”
….”कभी तो मेरे श्रृंगारों को ,
अपने छंदों से सजाते थे !
कभी हस्यों और परिहासों से ,
मुझे प्रतिदिन यूँ ही हंसाते थे !!
आपकी कलमों के वायुयानों में
बैठके आकाश को चूमा करती थी !
इधर उधर से दूर …बहुत ही ..दूर ,
विश्व का भ्रमण कर लेती थी !!
राजनीति के इन्द्रधनुष सात रंगों से आप ही सजाया करते थे !
कटु सत्य ,आलोचना और प्रसंशा ,केपाठों को
आप ही पढाया करते थे !!
आज आप निष्ठुर ,कुंठित ,अकर्मण्य ,
क्यों बनकर यहाँ पर सो रहे ?
प्रेरणा जो आपकी थी प्रखर ,
उसको मानो आज क्यों यूँ खो रहे ??
कलम को गांडीव में यूँ ना रखें ,
आपको बनना है धनुर्धर… लिखते रहें !
देखिये मैं द्रोपदी हूँ ..आपकी ,
रक्षा मेरी आजन्म आप करते रहें !!
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डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल “
साउंड हेल्थ क्लिनिक
डॉक्टर’स लेन
दुमका
झारखंड
भारत