मेरी अनपढ़ दादी
मेरी दादी लगभग 75 वर्ष की थी, जब उनका निधन हुआ। लगभग इसलिए क्योंकि उनके पास उम्र संबंधी कोई दस्तावेज नहीं था और उन्होंने स्कूल का मुख भी कभी नहीं देखा था। उन्हें अपना हस्ताक्षर करना भी नहीं आता था अतःअंगूठा लगाती थी। क्लिष्ट शब्दों का तो वह उच्चारण भी नहीं कर पाती थी। पर हां कृषि संबंधी कार्यों में वह विशेषज्ञ थी। यहां तक कि वैज्ञानिक भी मात खा जाते। दादी और दादा ने अत्यंत कम कृषि भूमि होने के बावजूद भी अपने पूरे परिवार को पाला पोषा।
बचपन में मैं अपनी दादी के साथ ही सोया करता था। वह मुझे बहुत प्यार करती थी, जैसा कि अक्सर सभी की दादियां करती है। जब किसी बात से मैं नाराज हो जाता और खाना पीना त्याग देता जैसा कि सभी बच्चे करते हैं, तो वह मुझे मनाती । पिताजी जब भी बाजार से कुछ खाने की चीजें लाते तो वह अपने हिस्से का कुछ भाग मुझे देती। मेरी तबीयत खराब होने पर ईश्वर से निवेदन करती की हे भगवान! बच्चे की तबीयत ठीक कर दे और बदले में बीमारी मुझे दे दे।
वह अनपढ़ थी अतः शिक्षा के महत्व को जाना एवं अपने बच्चों को एवं मुझे भी शिक्षा दिलाई। मैं पढ़ लिखकर सरकारी स्कूल का शिक्षक हो गया। अब मेरे अंदर शिक्षित होने का अहंकार आने लगा।मै अपनी दादी को अनपढ़ समझ कर हेय दृष्टि से देखने लगा कि वह दुनियादारी की बातों को जानती समझती नहीं है।इसी कारण मैंने कभी उनको इतना महत्व नहीं दिया जितने कि वह हकदार थी।
समय गुजरता गया, ब्रह्मांड का प्रकोप बढ़ने लगा फलस्वरूप मेरी मां ने शारीरिक परेशानियों के चलते कीटनाशी दवा का सेवन कर अपना जीवन समाप्त कर लिया। हमारे परिवार पर दुखों का गाज गिर गया। अब मेरे घर पर पिताजी ,दादाजी, दादी जी और मैं बचे। अब जो सबसे बड़ी समस्या थी वह खाना बनाने की थी। मैंने और पिताजी ने कभी खाना बनाया नहीं था। दादा जी काफी बुजुर्ग थे एवं मधुमेह के मरीज थे, दादी भी काफी बुजुर्ग थी एवं दमा की मरीज थी अतः ज्यादा चल भी नहीं पाती थी एवं अधिकतर समय बिस्तर पर ही बिताती थी। जो भी हो ,अब खाना तो मुझे ही बनाना था, परंतु कैसे? मैंने तो कभी किसी को खाना बनाते हुए तक नहीं देखा था। तब दादी जी बिस्तर पर सोए सोए ही दूर से मुझे बताती थी कि कितना तेल डालना है ,कब तड़का लगाना है एवं कब मिर्च मसाले डालने हैं।धीरे-धीरे मैंने दादी से खाना बनाना सीख लिया और पूरे परिवार को खिला पाने में सक्षम हो गया।
पुनः ब्रह्मांड के प्रकोप से एक- एक साल के अंतराल पर दादी , दादा और पिताजी की मृत्यु हो गई।
पिताजी की मृत्यु हृदयाघात से हो गई।अब मैं घर पर अकेला ही सदस्य बच गया या यूं कह लीजिए कि मेरा घर अब मकान हो गया। दादी की नसीहते आज भी मेरे काम आ रही थी और अब मैं बहुत ही स्वादिष्ट खाना बना सकता हूं, कईयों का पेट भर सकता हूं।
आज जब पलटकर दादी के बारे में सोचता हूं, तो सोचता हूं कि पढ़ा-लिखा होकर मैंने दादी को क्या सिखा पाया? कुछ भी तो नहीं।वहीं अनपढ़ होकर भी दादी ने मुझे खाना बनाने का हुनर सिखा दिया ,जो जिंदगी भर मेरे काम आने वाला है और अब मैं जंगल में भी अकेला रह सकता हूं किसी के सामने मुझे गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसी विद्या के बदौलत तो मैंने कईयों को प्रभावित भी किया है। अब मैं स्वयं भी यह मानता हूं कि मेरी शिक्षा तो महज कागजी थी।असल मायनों में शिक्षित तो दादी ही थी।