मेरा वह घर, जो अब बन रहा है खंडहर!
मेरा वह घर,
जहां पर,
मैं पला बढा,
पढा लिखा,
वह घर,
जहां पर,
मेरी तरह,
मेरे भाई बहन,
जन्मे,
जिस घर में,
जहां पर,
मेरे पिता,
मेरी माँ को,
दुल्हन बना कर लाए,
मेरा वह घर,,
जिस घर को,
उन्होंने,
अपने खून पसीने से सींचा,
स्वयं को तरबतर कर,
वह घर,जहां पर,
उसने दुखों से रुबरु होकर,
आसुओं का सैलाब झेला,
वह घर,जहां पर,
उसने हम सबकी घर गृहस्थी को,
बढता देख कर,
आत्म विभोर होकर,
नौनिहालों को चुमा,झूमा,
गोद में लेकर घुमा,
शरारत पर डांटा डपटा,
चोटिल होने पर,
सीने से लिपटा,
प्यार से,दुलार से,
आंचल में चिपका कर,
अपने में सिमेटा,
वह घर जहां पर,
शहनाईयों का रहा दौर,
बच्चों की किलकारियों का रहा शोर,
अब तन्हा सा गया है ठहर,
वह घर, जिसे छोड़ कर,
हम घुमते रहे, हैं,शहर शहर,
वह घर अब गया है दरक,
उग आए हैं, झाड झंगाड,
टूट गये हैं, खिडकी द्वार,
सड गल कर हो गये हैं बेहाल,
वह घर, जो अब तन्हा होकर,
कर रहा था इंतज़ार,
अपने उत्तराधिकारियों का,
देख तो लें एक बार,
मेरी छत भी टूट कर गिर ग ई,
अब कोई आता नहीं अक्सर,
ना जाते बनता है अंदर,
न बैठने को कुछ बचा है,
पलंग कुर्सी मेज,दब गये हैं,
मलबे के अंदर,
हां,सांप बिछु ओं ने,
जमा लिया है अपना डेरा,
और भी न जाने, किस किस ने,
बना दिया है अपना बसेरा,
अपना वह निवास,
होकर निरास,
तकता रहा हमारी राह,
लेकिन,
हम में से,
कोई नही लौटा,
नहीं उतर पाया,
उसके विश्वास पर खरा,
होकर तब वह निरास,
था जो कभी हमारा आवास,
थी जो तब हमारे सिर छिपाने की आस,
अब होकर निढाल,
गिर कर करता है सवाल,
जिसे कहते रहे हो अपना घर,
वह घर अब खंडहर में,
हो रहा तब्दील,
वह घर जो ,
अब हो रहा है खंडहर!
मेरा वह घर, जो हो गया है खंडहर !!