क्रांक्रीट का जंगल न बनाएंगे..
मेरा देश.. सफलता की गाथाएँ
गा इतिहास रच रहा है।
और मैं बेजान प्रथाएं …..
ढोते हुए क्रांकीट की दीवार रच रहा हूँ।
बंजर.. धरती ..जर्जर ..गांव..ठुंठ भरे खेत
अरे! दो ‘”लकड़ियों” के लिए “आम”
आदमी तरस रहा है।
और मैं किताबी विकास की
कथाएं पढ़ रहा हूं .
कानन! कहाँ है ?, जब कुल्हाड़ो की तृष्णा
है बढ़ रही, फूल, फल,,मूल से,तरु द्दाल से ,
सर्वस्व ,अर्पण, कर मनुज को लाभ पहुँचाते ..पर सदा
कट रही है ये सभी वन हाय !दारुण कथाएं …
विद्रुप हो पर्वतीय शोभा रो रही है ऋतुएं..
गगनचुंबी बेजान वन सदा ही ना रहेंगे…
पुष्प पृथ्वी प्रथम श्रृंगार है जहाँ,
क्रांक्रीट की जंगल न बनाएंगे…अश्रु