मेरा कसूर क्या था…?
मैं अपनी जननी की कोख में अपने अधपके शरीर के साथ इस जगत को देखने के सुंदर सपनों में अकसर खो जाती थी। कैसा होगा वो संसार! शायद मेरे सपनों से भी सुंदर होगा। रोज नए सुनहरे ख्वाब बुनना और अपने विकसित होते नन्हें शरीर को देखकर इठलाती रहती थी मैं।
एक दिन मुझे कुछ ज्यादा तेज आवाजें सुनाई दी। शायद मम्मी और पापा में कोई वार्तालाप हो रही थी। मैंने भी मम्मी की कोख में ही अपने कान उनकी बातों को सुनने में व्यस्त कर दिए। आखिर मैं भी तो सुनूँ क्या बात है!
“देखो रवि! ये जल्दबाजी है। मैंने आपको पहले ही समझाया था। लेकिन आप किसी की सुनते ही कहाँ हैं!”
मम्मी ने तुनकते हुए पापा को कहा।
“इसमें जल्दबाजी काहे की रिया? तीन साल हो चुके हैँ हमारी शादी को। और फिर तुम ही तो कहती हो कि मम्मी मुझसे कभी भी पूछ बैठती है। कोई बात नहीं! ये सही समय है।” पापा ने समझाते हुए कहा।
“लेकिन मेरी बोडी की भी सोची है आपने! मेरी सहेली सोनाली को देखा है आपने। जब से उसको बेबी हुआ है… हे भगवान्! बड़ी बेडोल नजर आती है। न बाबा! मैं ये रिस्क नहीं ले सकती।” मम्मी ने लरजते हुए कहा।
फिर पापा ने मुस्कराते हुए मम्मी को समझाया-” ऐसा नहीं होता पगली! हमारे पडो़स के ही जो अनिल बाबू हैं उनकी वाइफ को देखो। दो बेबी हैं उनके। है कमी कोई। आज भी जवां नजर आती है।” और फिर मानो मम्मी मानने वाले अंदाज़ में पापा को छेड़ते हुए बोली-“अच्छा जनाब अब बाहर की और वो भी बगल वाली औरतों पर भी नजर रखने लगे।” पापा हँस पडे़-“अरे नहीं! वो तो मैं तुम्हें समझा रहा था।” और फिर प्यार वाली नोंक-झोंक शुरू हो गई। खैर मेरी साँस में साँस आई। आखिर मम्मी मान तो गई।
सबको पता चल चुका था घर में। सब खुशी से झूम रहे थे। और दादी की तो पूछो मत खुशी के मारे पागल सी हुई जा रही थी। मैं तो नाच सी उठी अंदर ही अंदर और खुशी के मारे अपने नन्हें हाथ पैर उछालने लगी कि मम्मी कराह उठी। सबने पूछा तो मम्मी लजा सी गई। दादी हँसते हुए बोली- “अरे कोई डर की बात नहीं बेबी हाथ पैर चला रहा है।” मैं फिर अपने उन सुहाने सपनों में खो गई कि अब मैं भी जल्द ही अपने प्रभु की इस सुंदर रचना संसार को देखने वाली हूँ। मेरी अविकसित आँखों में सुनहरे ख्वाब उमड़ उमड़ कर आ रहे थे कि मुझे फिर कुछ तेज आवाजें सुनाई दी। मैंने फिर कान लगा दिए।
“नहीं रवि ये हमारे यहाँ पहले से ही होता आ रहा है।” दादी ने दृढ़ता से कहा।
“लेकिन ये कैसे हो सकता है मम्मी कि हर बार पहली संतान लड़का ही हो? पापा बोले।
“तुम भी हमारे खानदान की पहली संतान हो। और यहाँ यही रिवाज रहा है कि पहली संतान बेटा होना चाहिये न कि बेटी।” दादी ने कहा।
मम्मी तो एक तरफ सहमी सी खडी़ थी। तभी मेरे 17 वर्षीय चाचा जी ने दादी से पूछा-“मम्मी अगर किसी को पहली लड़की हो जाती तो क्या करते उस समय तो ऐसी व्यवस्था न थी कि कुछ जतन किया जाता।”
“ऐसा कुछ होने की नोबत ही नहीं आई, तुम्हारे पापा भी अपने खानदान की पहली संतान थे।”
अचानक दादी खडी़ हो गई “मुझे कुछ नहीं सुनना परंपरा तो निभानी ही होगी। कल हम अस्पताल जाएँगे लड़का हुआ तो ठीक वरना…. ” तुगलकी फरमान सुनाकर दादी कमरे में चली गई और सब एक दूसरे का मुँह ताकते रहे।
और मैं…. मैं तो यही सोचती रही की दादी के वरना के बाद के शब्द क्या होंगे!!
उस रात मुझे बड़े भयकंर सपने नजर आए। बस यही सोचते कि कल क्या होगा मैं कब सो गई पता ही न चला।
अगले दिन सभी अस्पताल में थे। मम्मी थोड़ी डरी हुई थी। पापा उन्हें धीरज बँधा रहे थे। कुछ समय बाद एक नर्स आई और मम्मी को एक कमरे में ले गई।
थोड़ी देर में सबको पता चल चुका था कि मम्मी के पेट में पलने वाला बच्चा कोई लड़का नहीं बल्कि लड़की थी। सबकी खुशी काफूर हो गई थी। मैं इसी सोच में थी कि अब क्या होगा। सभी गुमसुम सी खडी़ दादी को देख रहे थे। अचानक उनका चेहरा पत्थर सा हो गया और उन्होंने हुक्म दिया कि एबोर्सन कराया जाए।
एबोर्सन क्या बला थी। कुछ भी हो इतना मुझे पता चल चुका था कि इन्हें मेरे आने की खुशी नहीं थी और मेरे साथ कुछ बुरा होने वाला था। लेकिन क्या? यही सोचकर मैं काँपे जा रही थी।
मम्मी को एक स्ट्रेचर पर लिटाया जा चुका था। अचानक मुझे चुभन सी महसूस हुई । मैंने करवट बदलकर देखने की कोशिश की कि इतनी देर में मेरे मुँह से भयंकर चित्कार निकल उठी। कोई तेज धार वाली चीज मेरे शरीर के टुकड़े कर रही थी। मेरी आत्मा तड़प उठी। ये था ऐबोर्सन। एक ऐसे प्राणी को कोख में ही तड़पाकर मारना जिसने दुनिया भी न देखी हो। नहीं मम्मी ऐसा न करो। रोको इन्हें। तुम तो मेरी मम्मी हो ऐसा निर्दयी काम कैसे करवा सकती हो। मेरा कसूर क्या है! कि मैं आखिर एक लड़की हूँ। नहीं मम्मी ऐसा मत करवाइए । आह! मम्मी देखो दर्द हो रहा है। मेरे हाथ पैर तो अभी ढंग से उभरे भी नहीं थे। और आपने इन्हें कटवा डाला। ये क्या अनर्थ हो रहा है।
लेकिन मेरी चित्कार का किसी पर कोई फर्क न पडा़। मैं समझ गई थी मेरा सफर शुरू होने से पहले ही खत्म होने वाला था। इतना निर्दयी है इस संसार में रहने वाला मानव! मेरे तो कदम भी न पडे़ थे इस संसार में और मेरे साथ ये अत्याचार! सही हुआ ऐसे निष्ठुर संसार में जन्म लेकर ही क्या करना था। सारा शरीर जो सुंदरता से ढला था छिन्न-भिन्न हो चुका था। अब तो बस ये गर्दन कटे और मेरी आत्मा इस अविकसित शरीर से आजाद हो। खैर मुझे अब इस संसार से ज्यादा उस ईश्वर से शिकायत थी। उसने मुझे ऐसे निर्दयी हैवानों के बीच भेजने का निर्णय क्यूँ किया था और अगर किया भी था तो…… बहुत से सवाल थे….. जिनका जवाब मुझे उस भगवान् से लेना था…………
सोनू हंस